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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ए पुद्गलद्रव्य आत्माने शत्रु सर छे, माटे शत्रुभूत पुद्ग लद्रव्यनी संगत कयो समजु माणस धारे अने शत्रुभूत पुदगलद्रव्यनी साथे प्रीति करतां दुःख पामीए एनकी छे. ज्या शत्रुभूत पुद्गल द्रव्यने पोतानु, मानवामां आवे छे, त्यां सुधी मुक्ति पदनी आशा राखवी नही, जे भव्यजीवो आ संसारने असार गणे छे अने मुक्तिपदने सारगणी ते पामवा प्रयत्न करे छे, तेमने धन्य छे. आत्मा अनंत सुखनो भोक्ता छ, पण पुद्गल द्रव्यनी संगति करवाथी चोराशी लाख जीवायोनिमां आत्माने भ्रमण कर पडे छे, अने महा भयंकर दुःख वेठवू पडे छे. माटे हे भव्यजीवो ! तमे परनी संगति करशो नहि अने पोताने विषे रहेला एवा ज्ञान, दर्शन, चारित्र गुणोनी संगति करो. स्वस्वभावने विषे रमण करो एज हितकारक छे, घणा भव्यजीवो स्वस्वभावरमणता करी मुक्तिपद पाम्य छे, अने वळी पामशे. अने हाल महाविदेहक्षेत्रमा पामे छे, माटे मुज्ञोए याद राखg के सत्संगम अत्यंत हितकारक छे, ते उपर श्री आनंदघनजीमहाराज कहे छे के-जेणे शान्ति स्वरुप पामधुं होय तेणे आ प्रमाणे वर्त. शुद्ध आलंबन आदरे तजी अवर जंजालरे ॥ तामसी वृत्ति सवि परिहरी भजे सात्त्विकी शालरे ५ दुष्टजन संगति परिहरी, भजे सुगुरु संतानरे । जोग सामर्थ्य चित भावजे, धेरे मुगति निदानरे८ For Private And Personal Use Only
SR No.008522
Book TitleAnubhav Panchvinshtika Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1902
Total Pages249
LanguagePrakrit, Gujarati
ClassificationBook_Gujarati & Spiritual
File Size11 MB
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