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कुकृत्य करे छे, लडे छे, कजीया करे छे, परस्पर एक बी. जानां मस्तक छेदे छे, समुद्रमा तरे छे, वळी तेमां दुबकीओ पण मारे छे, पण अंते ते पोतानी थती नथी. जीव फक्त तेमने पोतानी मानी ठगाय छे, जेम पांच वरसनां पांच छोकरां पांच ढबुडीओनी रमत रमतां रमतां चोमासानी रुतुमां गामनी बहार रेताळ पृथ्वी उपर गया. त्यां जइ माटीनां घर बनाव्यां, वळी कूवा पण बनाव्या, एक बीजाना घर जुदां जुदा कर्या, पश्चात् एक बीजा प्रति सगपण जुदा जुदां कल्प्यां, ए वखते एकदम आकाशमांधी वर्षा थइ. घर रुप कल्पेली माटी तणाइ गइ, तेम ढबुडीओने कोइ मनुष्ये फाडी नांखी चूरा कर्या, तेवी घरवार हाट वखारो रुपैया सुवर्ण धान्य आदि रुदि जाणवी, तेथी आत्माने किंचित् मात्र पण तात्त्विक सुख नथी. तात्विक सुख तो आत्मिक रूद्धिथी छे. बाह्य पौद्गलिक ऋद्धि त्यांग करवा योग्य छे, अने अंतर आत्मिक रूद्ध ग्रहण करवा योग्य छे. तेनी प्राप्ति माटे सद्गुरुनु सेवन करवू, द्रव्यानुयोगर्नु जाणपणुं करवू, सत् शास्त्रनो अभ्यास करवो. व्याकरण अगर काव्य साहित्यथी जे पोताने विद्वान् माने छे, ते शुष्क विद्वान् जाणवो, सेनाथी केइ आत्महित थवानुं नथी. द्रव्यानुयोगना ज्ञान विना चार गति भ्रमण मटतुं नथी. यतः श्री यशोविजयजी उपाध्याय
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