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भोळा जन समजे नहीं, आत्म धर्म स्वरुप;
आत्मज्ञान वण प्राणीया, पडीया भव जल कूप.।९। यश कीर्ति वांछा करे, चलवे डाक डमाल; तस क्रिया फोगट कही, जो जो.उपदेश माल. १० धर्मोद्भव छे ज्ञानथी, संमजे नहीं तस लेश; तप जप क्रियाथी जरा, छूटे नहीं मन क्लेश. ११ आत्म मंदिरमां सदा, मन कपि करे न वास; ध्यान खीलो ज्ञान सांकले, मन कपि बांधोखास१२ विकल्प मन संसार छे, चतुर्गति भटकाय; विकल्प रहीत मन जब हुवे, तब शिव सुख झटपाय. ज्ञानी मन वशमां करे, राग द्वेष करे नाश: धर्म ध्यानारुढ थइ, त्रोडे कर्मना पास. ॥१४॥ द्रव्य योगनुं ज्ञान ज्यां, स्पर्शरुप त्यां सुख; परमात्म पद वृत्ति थकी, नाशे भव भय दुःख. १५ पढे ग्रंथ पण नहीं मटे, मोह महा जंजाळ; आत्म अनुभव ज्ञानथी, नाशे ते तत्काल. ॥१६॥ इत्यादि ज्ञानी कर्मान्त करे छे, ज्ञानी आत्म साक्षात्
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