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१७९ कारनी प्रवृत्तिमां अहर्निश ध्यानारुढ रहे छे. ज्ञानीनी साध्य दृष्टि विकल थती नथी. ज्ञानीनी आशातना करवी नहीं. द्रव्यानु योगना ज्ञातानेज खरा ज्ञानी जाणवा. एवा खरा ज्ञानी गुरुनु सेवन करवं. अने तेमनी आज्ञा प्रमाणे वर्तवं, पण कुगुरुतुं सेवन कर नही. कुगुरु काळा सर्प समान छे. यदुक्तं सप्पे दिठे नासइ लोओ नयकोवि किंपि अख्खेइ जो चयइ कुगुरुसप्पं हा मूढा भणहतं दुठं १ सप्पोइकं मरणं कुगुरुअणंताई देइ मरणाइं तोवरं सप्पं गहिओ मा कुगुरुसेवणं भदं ॥
इत्यादिथी सिद्ध थाय छे, कुगुरुनी पासे जवू, तेमना वचन मान्य करवा, अनंत संसार वृद्धि अर्थे छे. ज्ञानी कर्म थकी छूटे छे. आत्मस्वरुपना अनुभवी एवा ज्ञानी छे. मूढ नव तत्त्वनो अजाण, आत्म स्वरूपना अजाण, फक्त मनुष्यनुं शरीर पाम्यो छे, पण द्रव्य मनुष्यपणुं जेनामां छ, कर्मनुं स्वरुप समजतो नथी, व्यवहारे करी धर्म करणी करे छे, पण साध्य दृष्टि जेने प्राप्त थइ नथी, एका अज्ञानीने देखी मडदानी पेठे ज्ञानी शुं मनमा आनंद माने ? अलबत् कंइ आनंद थाय नही. मडदामां जीव नथी, अने आ मूढमां जीव छे, एटलुं विशेष छे. प्रथम गुणठाणु जेणे त्याग्युं नथी, समकित तो समजता नथी, तेवा मूढो भले पैसादार होय, पुत्र परिवार वाळा होय, देशना आधिपति होय, पण ते मडदा समान. छेतेमने देखी
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