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दुद्दा
ए मारो हुँ एहनो, ए. सहु मम आधीन; कर्ता हर्ता हुँ सदा, तबतक कर्माधीन. ॥ १॥ एशत्रु ए मित्र मुज, ए सहु मुज परिवार; जबतक बुद्धि एहवी, तबतक आ संसार. ॥१॥ परसंगे रंगी सदा, परपर ममता थाय; तबतक कर्माधीन सहु, बहिरातम पद पाय. ॥३॥ उंच नीच ज्ञाने करी, जाणे जबतक जेह; तबतक भवमां भटकतो, करे न कर्मनो छेह. ॥४॥ उंच नीच चेतन नही, उंच नीच सब भर्म; तेमां धर्म रहे नहीं, जाणे छूटे कर्म. ॥५॥ जाति लिंगमां धर्म नहीं, माने ते सहु मूढ; अनंत धर्म छे-आत्ममां, ए पस्मार्थ छे गूढ. ॥६॥ धर्म अरुपी आत्मनो, प्रगटे आत्म स्वभाव; पर परिणति त्यां धर्म क्या, ज्यां चित्त संक्लेश ताव.७
आत्म स्वरुप समजे नहीं, समजे नहीं नयवाद; क्रियाडंबर धामधूम, त्यां नहिं शिव सुख खाद.८
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