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द्रोण गुरुनी मूर्त्ति नावी; अने साक्षात् द्रोणपुरुनी बुद्धिना आरोपथी मानवा पूजवा लाग्यो, नमस्कार करवा लाग्यो तिथी तेने धनुर्विद्यानी प्राप्ति थइ. एक दिवस द्रोण गुरु अर्जुन सहित वन गया त्यां, मिले वृक्षपत्र विधेला जोयां तेनी चा तुरी देखी, द्रोण गुरुए पुछयुं के हे भिल्ल ! धनुर्विद्या क्याथी शीख्यो ? भिल्ले कर्छु द्रोणगुरुनी पासेथी. द्रोण गुरुए कहां के तारा द्रोण गुरु क्यां छें ? भिल्ले पोतानी झुपडीमां तेमने लड़ जइ माटीनी बनावेली मूर्त्तिने बतावो अने कहां के आ मारा द्रोण गुरु छे, तेमनी पासेथी हुं धनुर्विद्या शील्यो. द्रोण गुरु तथा अर्जुन आश्चर्य पामीने कहेवा लाग्या के, गुरु उपर भ क्ति भने बहु मानथी माटीना द्रोण गुरु पण तेनी इष्ट फल सिद्धि माटे थया.
सुज्ञो विचारो के माटीना द्रोण गुरुमां भाव द्रोण गुरु पण कं हतुं ? ना कइ नहीं, तेम छतां भावथी द्रोणगुरुनी बुद्धियी मानतां पूजां सेवतां भिल्लनी पेठें, जिनेश्वर भगवानमी प्रतिमाने जे माने छे पूजे छे तेने शिव सुख आदिनी प्राप्ति थाय छे, एमां शंशय नथी. श्री तीर्थंकर भगवान चोत्रीश अतिशय अने पांत्रीस वाणीना गुणोए करी बिराजमान होय छे. कैवल्य ज्ञाने करी लोकालोकना भावने यथार्थ जाने छे. भव्यजीवोना हित भणी समवसरणमां बेसी देशना आपे छे, बार पर्षदा भराय छे, देवता, मनुष्य, तिथेच, सौ सौनी भाषायां सनने छे. सौना संशय दूर थाय छे. पुन्यवंत जो
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