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भस्म करी पोताना स्वरुपर्नु ग्रहण करी लोकने अग्रभागे जइ अनंतसुखनुं ग्रहण कर्यु छे. पोताना गुणो ग्रहण कर्यां छे ते माटे सिद्धमां ग्राहक स्वभाव जाणवो. अने पहेलो संसारमा मोहनीय कर्म वश वर्ता हता. त्यारे समये समये अनंतकर्म दलीक ग्रहण करता हता तेथी हाल निवा माटे तेनी अपेक्षा अग्राहक स्वभाव जाणवो.
सिद्ध परमात्मा सकलकर्म खपावी पोतानुं स्वस्वरुप प्रगट करी लोकने अंते सादि अनंतमे भांगे तथा प्रवाहनी अपेक्षाओं अनादि अनंतमें भांगे जे आकाश प्रदेशरुप क्षेत्र अवगाही रह्या छे, त्यांथी कोइ काळे एह प्रदेश मुकी अन्य प्रदेशे जवू नथी ते माटे स्थिर स्वभाव कहीए, अने अनंतगुण सिद्धने प्रगटया छे, तेनो कोइ पण काले विनाश नथी तेनी अपेक्षा पण सिद्धने स्थिर स्वभाव जाणवो, अने सिद्धमां पर्यायर्नु समये समये पलटणपणुं छे एटले पर्याये करी हानीद्धी थाय छे ते सिद्ध परमात्मानो अस्थिर स्वभाव जाणवो. क्रोध रहित, मान रहित, माया रहित, लोभ रहित, हास्यरहित, अरति रहित, रहित, राग रहित द्वेष रहित, मोह रहित, मिथ्यात्व रहित, पांच प्रकारनां शरीर रहित, छ संघयण रहित, मन रहित, वचन रहित, लेश्या रहित, निद्रा रहित, काम रहित, इंद्रिय रहित, सिद्ध भगवान जाणवा.
सिद्ध परमात्मा निराकार छ, अक्षय छे, अखंड छे, अक्षर, अनक्षर, अकल, अगम, अमल, लोकालोक ज्ञायक, स्वद्रव्यवंत,
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