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त्यां बजीश अकारनां भोजन, सारी सारी सुवा वास्ते तळाइओ, अनेक जातिनां शाक, अनेक जातिना मेवा, घोडा गाडीमा बेसवान, अनेक प्रकारलां वेश्याओओ करेला नाच जोइ भिल्ल घणो मुखी थयो, पौद्गलीक सुखनी बाकी रही नही, एक दिवस भिल्लना मनमां विचार थयो के " हुं मारा सगां व्हालांने मळु" ते वात राजाने कही पोते जे अटवीमा रहेतो हतो त्यां गयो, सर्व भिल्लो भेगा थया पेला भिल्लने तेओओ पुछयुं 'कहो भाइ ! त्यां तारे सुवा, केर्बु सुख हतुं ? वराडामां द्रष्टान्तना अभावथी पोताना हाथनी हथेळी बताववा लाग्यो, देखाळा जेवी गोळ गोळ खावानी वस्तुओ हती, संपूर्ण तेनुं वर्णन पण थइ शके नहीं. तेम दृष्टान्त आपी समजावी पण शकाय नही तेम सिद्धनुं सुख मुखेथी शकाय तेम नथी. अनंत सुख सिद्ध भगवंत भोगवी रह्या छे, आठ कर्म खप्याथी आठ गुणो सिद्धना जीवोने उत्पन्न थाय छे. यतः नाणं च दंसणं चेव अव्वाबाहं तव सम्मत्तं। अरकय ठिई अरूवी, अगुरु लघु वीरियं हवइ ॥१॥
ज्ञाना वरणीय कर्मनो नाश थवाथी अनन्तज्ञान गुण स्वाभाविकगुण सिद्धने उत्पन्न थयो छे. दर्शनावरणीय कर्मनो क्षय थवाथी अनंतदर्शन प्रगटयुं छे, ज्ञान ए विशेष उपयोग आमानो छ, अने दर्शन ए सामान्य उपयोग आत्मानो छे. ज्ञान साकार उपयोग तरीके छे, अने दर्शन निराकार उपयोग रुप
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