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अध्यात्मगीता.. जैन धर्म. एटले अहो भव्य ! अहो उत्तम ! अहो सुलभबोधी जीवो ! तुम्हे ओलखो जैन धमे. जिन कहतां वीतराग, राग द्वेष थकी रहित एहवा जे सामान्य केवली तेहने विषे राजो समान, एहवा जिनेश्वर देव, त्रिगड़ाने विषे बेसीने वस्तुधर्म जेहवो अंतरंग सत्तागते रह्यो छे तेहवो जे प्रकाश्यो, ते धर्मने ओलखी प्रतीत कर्यो थकी. जेणे पामिये शुद्ध अध्यात्म मर्म. एटले शुद्ध कहतां निर्मल विभाव दशा रूप उपाधि थकी रहित, एहवो अध्यात्मनो मर्म कहतां अंतरंग जाणपणा रूप ज्ञाने करी स्वरूप भासनतारूप मर्म कहतां प्रतीत प्रते प्रगटी अने एहवी रीते स्वरुप भासनतारुप प्रतीत प्रतें प्रगटी त्यारे. अल्प काले टले दुष्ट कर्म.
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