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મધ્યમાં પૂર્વે પિલિપિછી, દક્ષિણે જમ્બા, પશ્ચિમે કદા અને ઉત્તરે અમા એક બ્રાહ્મ આઠ દેવીએ વાસ્તુપદમાં વસેલી છે. ૨૮૨-૮૩-૮૪-૮૫
पूर्व कामे अंधकासुर दैत्यके साथ युद्ध करते वकत रुद्रके ललाटसे पसीनेका बिन्दु पृथ्वी पर गीर पढा उससे एक आश्चर्यकारक अति दु:सह, कुर पुरुष पैदा हुआ । सिसे सब देवोंने उसे पकड़ा और खुलाया | उसकी दोनो जंघा, घुटने, पैर नैऋत्य दिशामें और मस्तक ईशान कोने में रहे । उसकी देह पर पैंतालीस देव बैठे हुए हैं । उसमें से आठ देव आठ दिशामें रहे हैं । देवाने उस पर बसेरा किया सिलिये वह 'वास्तु पुरुष' कहलाया |
प्रासाद और भवन आदि वास्तु कार्य के प्रारंभ में, समाप्ति के वकत और अन्य कामोंमें वास्तु पुरुषका पूजन अवश्य करें | जिससे सुख प्राप्त होता है ।
(नोट:- जिस वास्तुपुरुषके अंगके मर्मस्थानों पर स्तंभ पाटके दीवार न आने दें वैसा आगे बताया गया है ).
वास्तुके पद विभाग पृथक पृथक कहे हैं । उसमें विशेष करके ७७ = ४९ पदका मरिचि वास्तु जिर्णोद्वारके प्रसंग पर पूजें । ८x८=६४ पदका भद्रक वास्तु नगर, ग्राम, जलाशय और राजभवन में पूजें । ९x९= ८१ पदका कामद वास्तु सामान्य घरांमें पूजे । १०x१०= १०० पदका भद्राख्य वास्तु प्रासाद मंडप में पूजे । और हजार पदका सर्वतो भद्र वास्तु मेरु प्रासादको स्थापनमें पूजें । एकाशी पदके वास्तु मंडलमें मध्यके नवपद ब्रह्मा, उससे चारों दिशाओंमें छछ पदके, पूर्व में अर्यमा, दक्षिण वैवस्तव, पश्चिममें मैत्रगण और उत्तर पृथ्वीवर यह चार देव छछ पदके हैं । देव देवियों में ईशानमें आप आपवास । अग्नि कोन में सवित्री और सविता, नैऋत्य कोनेमे इन्द्र और जयंत और वायव्य कोने में रुद्र और रुद्रदास स्थापन हुए हैं । और उसकी चारों ओर देवोमे' पूर्व से इर्श पर्जन्य, जयद्र सूर्य, सत्य, भृश और आकाश, दक्षिण अग्नि, पुषा, वितथ, गहथत, यम, गंधर्व भृंगराज और मृग