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(२) वैदिक संस्कृत अने प्राकृतनो संबंध जनामां जना वररुचिथी छेक छेल्ला मार्कंडेय सुधीना बधा प्राकृतव्याकरणकारोए प्राकृतरूपोनी साधना माटे लौकिक (वैदिकेतर) संस्कृतनो ज उपयोग करेलो छ, तदनुसार आ पुस्तकमां पण ए न शैलीने मान्य राखवामां आवी छे. परंतु अत्यारनां विपुल साधनोथी एम जणाय छे के, प्राकृतभाषानो संबंध वैदिक संस्कृतनी साथे पण छे (जूओ आर्यविद्याव्याख्यानमाळा पृ० १९४-२०९) तेथी प्राकृतरूपोनी साधना माटे वैदिक शब्दोने पण मूळभूत राखवा ए, सरखामणीनी दृष्टिए विशेष अगत्यनुं छे. आ वातने सूचववा वैदिक संस्कृतने मुळभूत राखीने पण सरखामणी करवामां आवी छे. (जओ पृ० ४९-९४-३०९)
प्राकृतना एवा तो घणा य नियमो छे जे वैदिक संस्कृतनां रूपो साथे मळता आवे छे, [ जेमके; अंत्यव्यंजनलोप ( जूओ पृ० १. नि. १)
वैदिकरूपो
पश्वा ( पश्चात् ) • उच्चा (उच्चात् ) नीचा (नीचात् ) युष्मा (युष्मान् )
देवकर्मेभिः ( देवकर्मभिः) आ बधां वैदिक रूपोमां अंत्यव्यंजननो लोप थएलो छे.
'र' 'य' नो लोप (जूओ पृ० १६ नि. ५ तथा पृ० १५ नि. ४)
अपगल्भ ( अप्रगल्भ)
तृच् (न्युच् ) पेला रूपमा 'र' नो अने बीजामा 'य'नो लोप थएलो. छे.