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समयसार-कलश
[भगवान् श्री कुन्द-कुन्द
[वसंततिलका] ज्ञानाद्विवेचकतया तु परात्मनोर्यो जानाति हंस इव वाःपयसोर्विशेषम्। चैतन्यधातुमचलं स सदाधिरूढो । जानीत एव हि करोति न किञ्चनापि।।१४-५९ ।।
[हरिगीत] दूध जल में भेद जाने ज्ञानसे बस हंस ज्यों । सद्ज्ञान से अपना-पराया भेद जाने जीव त्यो ।। जानता तो है सभी करता नहीं कुछ आतमा। चैतन्य में आरूढ़ नित ही यह अचल परमातमा।।५९।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- "यः तु परात्मनो: विशेषम् जानाति'' [यः तु] जो कोई सम्यग्दृष्टि जीव [ पर] द्रव्यकर्मपिण्ड [आत्मनोः] शुद्ध चैतन्यमात्र, उनका [ विशेषम् ] भिन्नपना [जानाति] अनुभवता है। कैसा करके अनुभवता है ? ''ज्ञानात् विवेचकतया'' [ ज्ञानात्] सम्यग्ज्ञान द्वारा [विवेचकतया] लक्षणभेद कर। उसका विवरण-शुद्ध चैतन्यमात्र जीव का लक्षण, अचेतनपना पुद्गलका लक्षण; इससे जीव पुद्गल भिन्न भिन्न है ऐसा भेद भेदज्ञान कहना। दृष्टान्त कहते हैं - "वाःपयसोः हंसः इव'' [वाः] पानी [ पयसोः] दूध [हंसः इव] हंसके समान। भावार्थ इस प्रकार है कि जिस प्रकार हंस दूध-पानी भिन्न भिन्न करता है उस प्रकार जो कोई जीव -पुद्गलको भिन्न भिन्न अनुभवता है "सः हि जानीत एव, किञ्चनापि न करोति'' [स: हि] वह जीव [ जानीत एव] ज्ञायक तो है, [किञ्चनापि] परमाणुमात्र भी [ न करोति] करता तो नहीं है। कैसा है ज्ञानी जीव ? "स: सदा अचलं चैतन्यधातुं अधिरूढ:'' वह सदा निश्चल चैतन्य धातुमय आत्माके स्वरूपमें दृढ़तासे रहा है।। १४-५९ ।।
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