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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates कहान जैन शास्त्रमाला] कर्ता-कर्म-अधिकार [ मंदाक्रान्ता] ज्ञानादेव ज्वलनपयसोरोष्ण्यशैत्यव्यवस्था ज्ञानादेवोल्लसति लवणस्वादभेदव्युदासः। ज्ञानादेव स्वरसविकसन्नित्यचैतन्यधातो: क्रोधादेश्च प्रभवति भिदा भिन्दती कर्तृभावम्।। १५-६०।। [अडिल्ल छन्द] उष्णोदक में उष्णता है अग्निकी, और शीतलता सहज ही नीर की। व्यंजनों में है नमक का क्षारपन, ज्ञान ही यह जानता है विज्ञजन।। क्रोधादिक के कर्तापन को छेदता, अहंबुद्धि के मिथ्यातम को भेदता। इसी ज्ञान में प्रगटे निज शुद्धात्मा, अपने रस से भरा हुआ यह आतमा।।६०।। खंडान्वय सहित अर्थ:- "ज्ञानात् एव स्वरसविकसन्नित्यचैतन्यधातोः क्रोधादेः च भिदा प्रभवति'' [ ज्ञानात् एव] शुद्ध स्वरूपमात्र वस्तुको अनुभवन करते ही [स्वरस] चेतनस्वरूप, उससे [विकसत्] प्रकाशमान है, [नित्य ] अविनश्वर है, ऐसा जो [चैतन्यधातोः] शुद्ध जीवस्वरूपका [ क्रोधादे: च] जितने अशुद्ध चेतनारूप रागादि परिणामका [भिदा] भिन्नपना [प्रभवति] होता है। भावार्थ इस प्रकार है कि [प्रश्नः ] साम्प्रत [ वर्तमानं] जीवद्रव्य रागादि अशुद्ध चेतनारूप परिणमा है, सो तो ऐसा प्रतिभासिता है कि ज्ञान क्रोधरूप परिणमा है; सो ज्ञान भिन्न ,क्रोध भिन्न ऐसा अनुभवना बहुत ही कठिन है। उत्तर इस प्रकार है कि साँचा ही कठिन है, पर वस्तुका शुद्ध स्वरूप विचारनेपर भिन्नपनेरूप स्वाद आता है। कैसा है भिन्नपना ? "कर्तृभावं भिन्दती'' [ कर्तृभावं] ‘कर्मका कर्ता जीव' ऐसी भ्रान्ति, उसको [ भिन्दती] मूलसे दूर करता है। दृष्टान्त कहते हैं- "एव ज्वलनपयसोः औष्ण्यशैत्यव्यवस्था ज्ञानात् उल्लसति'' [ एव ] जिस प्रकार [ज्वलन] अग्नि [ पयसोः] पानी, उनका [ औष्ण्य ] उष्णपना [ शैत्य ] शीतपना, उनका [ व्यवस्था] भेद [ ज्ञानात् ] निजस्वरूपग्राही ज्ञानके द्वारा उल्लसति] प्रगट होता है। भावार्थ इस प्रकार है कि जिस प्रकार अग्नि संयोगसे पानी ताता [ उष्ण] किया जाता है, फिर 'ताता पानी' ऐसा कहा जाता है, तथापि स्वभाव विचारनेपर उष्णपना अग्निका है, पानी तो स्वभावसे शीतल ठंडा है ऐसा भेदज्ञान, विचारनेपर उपजता है। और दृष्टान्त–'एव लवणस्वादभेदव्युदासः ज्ञानात् उल्लसति'' [ एव] जिस प्रकार [ लवण] खारा रस, उसका यंजनसे भिन्नपनेके द्वारा खारा लवणका स्वभाव ऐसा जानपना उससे | व्युदासः । 'व्यंजन खारा' ऐसा कहा जाता था, जाना जाता था सो छूटा। [ज्ञानात् ] निज स्वरूपका जानपना उसके द्वारा [ उल्लसति ] प्रगट होता है। भावार्थ इस प्रकार है कि जिस प्रकार लवणके संयोगसे व्यंजन संभारते हैं तो 'खारा व्यंजन' ऐसा कहा जाता है, जाना भी जाता है; स्वरूप विचारनेपर खारा लवण, व्यंजन जैसा है वैसा ही है।। १५-६०।। [स्व Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008397
Book TitleSamaysara Kalash
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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