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समयसार - कलश
[ वसन्ततिलका ]
अज्ञानतस्तु सतॄणाभ्यवहारकारी ज्ञानं स्वयं किल भवन्नपि रज्यते यः ।
पीत्वा दधीक्षुमधुराम्लरसातिगृद्धया गां दोग्धि दुग्धमिव नूनमसौ रसालम् ।। १२-५७।।
[ कुण्डलिया ]
नाज सम्मिलित घास को ज्यों खावे गजराज । भिन्न स्वाद जाने नहीं, समझे मीठी घास ।। समझे मीठी घास नाज को ना पहिचाने । त्यों अज्ञानी जीव निजातम स्वाद न जाने । पुण्य पापमें धार एकता शून्य हिया है । अरे शिखरणी पी मानो गो दूध पिया है । । ५७ ।।
[ भगवान् श्री कुन्दकुन्द -
खंडान्वय सहित अर्थ:- ' य: अज्ञानतः तु रज्यते" [ यः ] जो कोई मिथ्यादृष्टि जीव [ अज्ञानतः तु] मिथ्या दृष्टिसे ही [ रज्यते ] कर्मकी विचित्रतामें अपनापन जानकर रंजायमान होता है, वह जीव कैसा है ? ' सतृणाभ्यवहारकारी" [ सतृण ] घास के साथ [ अभ्यवहारकारी ] आहार करता है। भावार्थ इस प्रकार है कि जैसे हाथी अन्न- घास मिला ही बराबर जान खाता है, घासका और अन्नका विवेक नही करता वैसे मिथ्यादृष्टि जीव कर्मकी सामग्रीको अपनी जानता है । जीवका और कर्मका विवेक नही करता है । कैसा है ? ' ' किल स्वयं ज्ञानं भवन् अपि '' [ किल स्वयं ] निश्चयसे स्वरूपमात्रकी अपेक्षा [ ज्ञानं भवन् अपि ] यद्यपि ज्ञानस्वरूप है। और जीव कैसा है ? 'असौ नूनम् रसालम् पीत्वा गां दुग्धम् दोग्धि इव [ असौ ] यह है जो विद्यमान जीव [ नूनम् ] निश्चयथसे [ रसालम् ] शिखरणीको [ पीत्वा ] पीकर ऐसा मानता है कि [ गां दुग्धम् दोग्धि इव ] मानो गायके दूधको पीता है। क्या करके ? " दधीक्षुमधुराम्लरसातिगृद्ध्या'' [ दधीक्षु ] शिखरणीमें [ मधुराम्लरस ] मीठे और खट्टे स्वादकी [ अतिगृद्धया ] अति ही आसक्तिसे । भावार्थ इस प्रकार है कि स्वादलम्पट हुआ शिखरणी पीता है, स्वादभेद नहीं करता है। ऐसा निर्भेदपना मानता है, जैसा गायके दूधको पीते हुए निर्भेदपना माना जाता है । । १२-५७ ।।
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