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कहान जैन शास्त्रमाला]
कर्ता-कर्म-अधिकार
[हरिगीत] परको करूं मैं-यह अहं अत्यन्त ही दुर्वार है। यह है अखण्ड अनादि से जीवन हुआ दुःस्वार है।। भूतार्थनय के ग्रहण से यदि प्रलय को यह प्राप्त हो। तो ज्ञान के घनपिण्ड आतम को कभी न बंध हो।।५५ ।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- "ननु मोहिनाम् अहम् कुर्वे इति तमः आसंसारतः एव धावति'' [ ननु] अहो जीव! [ मोहिनाम् ] मिथ्यादृष्टि जीवोंके [अहम् कुर्वे इति तमः ] 'ज्ञानावरणादि कर्मका कर्ता जीव ऐसा है जो मिथ्यात्वरूप अंधकार [आसंसारतः एव धावति] अनादि कालसे एकसंतानरूप चला आरहा है। कैसा है मिथ्यात्वरूपी अंधकार ? ''परं'' परद्रव्यस्वरूप है। और कैसा है ? ' ' उच्चकै: दुर्वारं'' अति ढीठ है। और कैसा है ? ' ' महाहंकाररूपं'' [महाहंकार ] ' मैं देव, मैं मनुष्य, मैं तिर्यंच, मैं नारक' ऐसी जो कर्मकी पर्याय उसमें आत्मबुद्धि [ रूपं] वही है स्वरूप जिसका ऐसा है। "यदि तद् भूतार्थपरिग्रहेण एकवारं विलयं व्रजेत्'' [ यदि ]जो कभी [ तत्] ऐसा है जो मिथ्यात्व-अंधकार [भूतार्थपरिग्रहेण ] शुद्धस्वरूप-अनुभवके द्वारा [ एकवारं] अन्तर्मुहूर्तमात्र [विलयं व्रजेत् ] विनाशको प्राप्त होजाय। भावार्थ इस प्रकार है कि जीवके यद्यपि मिथ्यात्व-अंधकार अनन्त कालसे चला आरहा है । तथा जो सम्यक्त्व होय तो मिथ्यात्व छूटे, जो एक वार छूटे तो, "अहो तत् आत्मनः भूयः बन्धनं किं भवेत्'' [अहो] भो जीव! [ तत्] उस कारणसे [ आत्मनः] जीवके [ भूयः ] पुनः [बन्धनं किं भवेत् ] एकत्वबुद्धि क्या होगी अपितु नहीं होगी। कैसा है आत्मा ? "ज्ञानघनस्य'' ज्ञानका समूह है। भावार्थ-शुद्धस्वरूपका अनुभव होनेपर संसारमें रुलना नहीं होता।। १०-५५।।
[अनुष्टुप] आत्मभावान् करोत्यात्मा परभावान् सदा परः। आत्मैव ह्यात्मनो भावाः परस्य पर एव ते।।११-५६ ।।
[दोहा] परभावों को पर करे आतम आतमभाव । आप आपके भाव हैं पर के हैं परभाव।।५६ ।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- "आत्मा आत्मभावान् करोति'' [आत्मा] जीवद्रव्य [आत्मभावान्] अपने शुद्धचेतनारूप अथवा अशुद्धचेतनारूप राग-द्वेष-मोहभाव, [ करोति] उनरूप परिणमता है । "पर: परभावान् सदा करोति'' [पर:] पुद्गलद्रव्य [ परभावान् ] पुद्गलद्रव्यके ज्ञानावरणादिरूप पर्यायको [ सदा] त्रिकाल गोचर [करोति] करता है। "हि आत्मनः भावाः आत्मा एव'' [हि] निश्चयसे [आत्मनः भावाः] जीवके परिणाम [ आत्मा एव] जीव ही है। भावार्थ इस प्रकार है कि चेतन परिणामको जीव करता है, वे चेतनपरिणाम भी जीव ही हैं, द्रव्यान्तर नहीं हुआ। "परस्य ते पर: एव'' [ परस्य] पुद्गलद्रव्यके [ भावाः] परिणाम [पर: एव] पुद्गलद्रव्य हैं, जीवद्रव्य नहीं हुआ। भावार्थ इस प्रकार है कि ज्ञानावरणादि कर्मका कर्ता पुद्गल है और वस्तु भी पुद्गल है, द्रयान्तर नही।। ११–५६ ।।
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