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समयसार - कलश
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[ आर्या ]
नैकस्य हि कर्तारौ द्वौ स्तो द्वे कर्मणी न चैकस्य । नैकस्य च क्रिये द्वे एकमनेकं यतो न स्यात्।। ९-५४।।
[ हरिगीत ]
कर्ता नहीं दो एक के हों एक के दो कर्म ना। न दो क्रियायें एक की हों क्योंकि एक अनेक ना । । ५४ ।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- यहाँ पर कोई मतान्तर निरूपण करेगा कि द्रव्यकी अनन्त शक्तियाँ हैं सो एक शक्ति ऐसी भी होगी कि एक द्रव्य दो द्रव्योंके परिणामको करे । जैसे जीवद्रव्य अपने अशुद्ध चेतनारूप राग-द्वेष - मोहपरिणामको व्याप्य व्यापकरूप करे वैसे ही ज्ञानावरणादि कर्मपिण्डको व्याप्य - व्यापकरूप करे। उत्तर इस प्रकार कि द्रव्यके अनन्त शक्तियाँ है पर ऐसी शक्ति तो कोई नहीं कि जिससे जैसे अपने गुणके साथ व्याप्य - व्यापकरूप है, वैसे ही परद्रव्यके गुणके साथ भी व्याप्य - व्यापकरूप होवे। ‘‘हि एकस्य द्वौ कर्तारौ न " [हि ] निश्चयसे [ एकस्य ] एक परिणामके [ द्वौ कर्तारौ न] दो कर्ता नहीं हैं। भावार्थ इस प्रकार कि अशुद्ध चेतनारूप राग-द्वेष-मोहपरिणामका जिस प्रकार व्याप्य–व्यापकरूप जीवद्रव्य कर्ता है उसी प्रकार पुद्गलद्रव्य भी अशुद्ध चेतनारूप रागद्वेष-मोहपरिणामका कर्ता है ऐसा तो नहीं। जीवद्रव्य अपने राग-द्वेष - मोहपरिणामका कर्ता है, पुद्गलद्रव्य कर्ता नहीं है।
'एकस्य द्वे कर्मणी न स्तः [ एकस्य ] एक द्रव्यके [ द्वे कर्मणी न स्तः ] दो परिणाम नहीं होते हैं। भावार्थ इस प्रकार कि जिस प्रकार जीवद्रव्य राग-द्वेष - मोहरूप अशुद्ध चेतनापरिणाम व्याप्य व्यापकरूप कर्ता है उस प्रकार ज्ञानावरणादि अचेतन कर्मका कर्ता जीव है ऐसा तो नहीं है । अपने परिणामका कर्ता है, अचेतन परिणामरूप कर्मका कर्ता नहीं है। " च एकस्य द्वे क्रिये न " [च] तथा [ एकस्य ] एक द्रव्यकी [ द्वे क्रिये न ] दो क्रिया नहीं होतीं । भावार्थ इस प्रकार कि जीवद्रव्य जिस प्रकार चेतनपरिणतिरूप परिणमता है वैसे ही अचेतन परिणतिरूप परिणमता हो ऐसा तो नहीं है। ' यतः एकम् अनेकं न स्यात् ' [ यतः ] जिस कारणसे [ एकम् ] एक द्रव्य [ अनेकं न स्यात् ] दो द्रव्यरूप कैसे होवे ? भावार्थ इस प्रकार कि जीवद्रव्य एक चेतनद्रव्यरूप है सो जो पहले वह अनेक द्रव्यरूप होवे तो ज्ञानावरणादि कर्मका कर्ता भी होवे, अपने राग-द्वेष-मोहरूप अशुद्ध चेतनपरिणामका भी कर्ता होवे; सो ऐसा तो है नहीं । अनादिनिधन जीवद्रव्य एकरूप ही है, इसलिये अपने अशुद्ध चेतनपरिणामका कर्ता है, अचेतनकर्मका कर्ता नहीं है। ऐसा वस्तुस्वरूप है ।। ९-५४ ।।
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[ भगवान् श्री कुन्दकुन्द -
[ शार्दूलविक्रीडित]
आसंसारत एव धावति परं कुर्वेऽहमित्युच्चकै - दुर्वारं ननु मोहिनामिह महाहङ्काररूपं तमः। तद्भूतार्थपरिग्रहेण विलयं यद्येकवारं व्रजेत् तत्किं ज्ञानघनस्य बन्धनमहो भूयो भवेदात्मनः।। १०-५५ ।।
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