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________________ ४८ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार - कलश [ भगवान् श्री कुन्दकुन्द - [शार्दूलविक्रीडित] व्याप्यव्यापकता तदात्मनि भवेन्नैवातदात्मन्यपि व्याप्यव्यापकभावसम्भवमृते का कर्तृकर्मस्थितिः । इत्युद्दामविवेकघस्मरमहोभारेण भिन्दस्तमो ज्ञानीभूय तदा स एष लसितः कर्तृत्वशून्यः पुमान् ।। ४-४९।। [ सवैया इकतीसा ] तत्वस्वरूप भाव में ही व्याप्य व्यापक बने, बने न कदापि वह अतत्वरूप भाव में । कर्त्ता-कर्म भाव का बनना असम्भव है, व्याप्य व्यापकभाव संबंध के अभाव में। इस भांति प्रबल विवेक दिनकर से ही, भेद अंधकार लीन निज ज्ञानभाव में। कर्तृत्व भार से शुन्य शोभायमान, पूर्ण निर्भार मगन आनन्द स्वभाव में ।। ४९ ।। खंडान्वय सहित अर्थ:- " तदा स एष पुमान् कर्तृत्वशून्यः लसितः' [ तदा] उस काल [ स एष पुमान्] जो जीव अनादि कालसे मिथ्यात्वरूप परिणत हुआ था वही जीव [कर्तृत्वशून्य: लसितः] कर्म करनेसे रहित हुआ । कैसा है जीव ? ' ज्ञानीभूय तमः भिन्दन् '' [ ज्ञानीभूय ] अनादिसे मिथ्यात्वरूप परिणमता हुआ जीव - कर्मकी एकपर्यायस्वरूप परिणत होरहा था सो छूटा, शुद्धचेतन-अनुभव हुआ, ऐसा होनेपर [ तम: ] मिथ्यात्वरूपी अंधकारको [ भिन्दन् ] छेदता हुआ । किसके द्वारा मिथ्यात्वरूपी अंधकार छूटा ? ' इति उद्दामविवेकघस्मरमहोभारेण '' [ इति ] जो कहा है, [ उद्दाम ] बलवान है [ विवेक ] भेदज्ञानरूपी [ घस्मरमह: भारेण ] सूर्यके तेजके समूह द्वारा। आगे जैसा विचार करनेपर भेदज्ञान होता है वही कहते हैं - व्याप्यव्यापकता तदात्मनि भवेत् ' [ व्याप्य ] समस्त गुणरूप वा पर्यायरूप भेद - विकल्प तथा [ व्यापकता ] एक द्रव्यरूप वस्तु [ तदात्मनि ] एक सत्त्वरूप वस्तुमें [ भवेत् ] होता है। "" भावार्थ इस प्रकार है कि जैसे सुवर्ण पीला, भारी, चिकना ऐसा कहने का है, परंतु एक सत्त्व है वैसे जीवद्रव्य ज्ञाता, दृष्टा ऐसा कहनेका है, परंतु एक सत्त्व है। ऐसे एक सत्त्वमें व्याप्यव्यापकता भवेत् अर्थात् भेदबुद्धि की जावे तो व्याप्य - व्यापकता होती है। विवरण – व्यापक अर्थात् द्रव्य-परिणामी अपने परिणामका कर्ता होता है। व्याप्य अर्थात् वह परिणाम द्रव्यने किया। जिसमें ऐसा भेद किया जाय तो होता है, नहीं किया जाय तो नहीं होता । अतदात्मनि अपि न एव " [ अतदात्मनि ] जीवसत्त्वसे पुद् गलद्रव्यका सत्त्व भिन्न [ अपि ] निश्चयसे [न एव] व्याप्यव्यापकता नहीं है। भावार्थ इस प्रकार है कि जैसे उपचारमात्रसे द्रव्य अपने परिणामका कर्ता है, वही परिणाम द्रव्यका किया हुआ वैसे अन्य द्रव्यका कर्ता अन्य द्रव्य उपचारमात्रसे भी नही है. क्योंकि एक सत्त्व नहीं, भिन्न सत्त्व है। 'व्याप्यव्यापकभावसम्भवम् ऋते कर्तृकर्मस्थिति: का [ व्याप्यव्यापकभाव ] परिणाम - परिणामीमात्र भेदकी [सम्भवं ] [ कर्तृकर्मस्थितिः का ] ज्ञानावरणादि पुद्गलकर्मका कर्ता जीवद्रव्य ऐसा अनुभव घटता नहीं । कारण कि जीवद्रव्य पुद्गलद्रव्य एक सत्ता नहीं, भिन्न सत्ता है। ऐसे ज्ञानसूर्य के द्वारा मिथ्यात्वरूप अंधकार मिटता है और जीव सम्यग्दृष्टि होता है ।। ४-४९ ।। 66 33 उत्पत्ति [ ऋते ] बिना Please inform us of any errors on rajesh@Atma Dharma.com
SR No.008397
Book TitleSamaysara Kalash
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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