________________
Version 001: remember to check http://www.Atma Dharma.com for updates
कहान जैन शास्त्रमाला ]
कर्ता-कर्म-अधिकार
[ स्त्रग्धरा ]
ज्ञानी जानन्पीमां स्वपरपरिणतिं पुद्गलश्चाप्यजानन् व्याप्तृव्याप्यत्वमन्तः कलयितुमसहौ नित्यमत्यन्तभेदात्। अज्ञानात्कर्तृकर्मभ्रममतिरनयोर्भाति तावन्न यावत् विज्ञानार्चिश्चकास्ति क्रकचवददयं भेदमुत्पाद्य सद्यः।। ५-५०।।
[ सवैया इकतीसा ]
निजपरपरिणति जानकर जीव यह, परपरिणति करता कभी नहीं । निजपरपरिणति अजानकर पुद्गल, परपरिणति करता कभी नहीं । नित्य अत्यन्त भेद जीव- पुद्गल में, करता-करम भाव उनमें बने नहीं। ऐसो भेदज्ञान जबतक प्रगटे नहीं, करता-करम की प्रवृत्ती मिटे नहीं ।। ५० ।।
66
..
33
खंडान्वय सहित अर्थ:- ‘यावत् विज्ञानार्चि: न चकास्ति तावत् अनयोः कर्तृकर्मभ्रममतिः अज्ञानात् भाति '' [ यावत् ] जितने काल [विज्ञानार्चिः] भेदज्ञानरूप अनुभव [ न चकास्ति ] नहीं प्रगट होता है [ तावत् ] उतने काल [अनयोः ] जीव- पुद्गलमें [ कर्तृ-कर्म-भ्रममतिः ] — ज्ञानावरणादिका कर्ता जीवद्रव्य' ऐसी जो मिथ्या प्रतीति वह [ अज्ञानात् भाति ] अज्ञानपनेसे है। वस्तुका स्वरूप ऐसा तो नहीं है । कोई प्रश्न करता है कि ज्ञानावरणादिकर्मका कर्ता जीव सो अज्ञानपना है, सो क्यों है ? ' ' ज्ञानी पुद्गलः च व्याप्तृव्याप्यत्वम् अन्तः कलयितुम् असहौ'' [ ज्ञानी ] जीववस्तु [ पुद्गलः] ज्ञानावरणादि कर्मपिंड [ व्याप्त-व्याप्यत्वम् ] परिणामी - परिणामभावरूपसे [अन्तः कलयितुम्] एक संक्रमणरूप होने को [ असहौ ] असमर्थ है, क्योंकि' ' नित्यम् अत्यन्तभेदात् ' [नित्यम्] द्रव्यस्वभावसे [ अत्यन्तभेदात् ] अत्यन्त भेद है। विवरण - जीवद्रव्यके भिन्न प्रदेश चैतन्यस्वभाव, पुद्गल - द्रव्यके भिन्न प्रदेश अचेतनस्वभाव, ऐसे भेद घना । कैसा है ज्ञानी ? ‘— इमां स्व-पर-परिणतिं जानन् अपि '' [ इमां ] प्रसिद्ध है ऐसे [ स्व ] अपने और [ पर ] समस्त ज्ञेय वस्तुके [ परिणतिं ] द्रव्य-गुण-पर्याय अथवा उत्पाद-व्यय- ध्रौव्यका [ जानन् ] ज्ञाता है। [ अपि ] [ जीव तो ] ऐसा है। तो फिर कैसा है पुद्गलद्रव्य ? वही कहते हैं - ' ' [ इमां स्व-पर-परिणतिं ] अजानन्' [ इमां ] प्रगट है ऐसे [ स्व ] अपने और [पर] अन्य समस्त पर द्रव्योंके [ परिणतिं ] द्रव्य-गुणपर्याय आदिको [ अजानन् ] नहीं जानता है, ऐसा है पुद्गलद्रव्य ।
४९
Please inform us of any errors on rajesh@Atma Dharma.com
,
भावार्थ इस प्रकार है कि जीवद्रव्य ज्ञाता है, पुद्गलकर्म ज्ञेय है ऐसा जीवको और कर्मको ज्ञेयज्ञायकसंबंध है, तथापि व्याप्य - व्यापकसंबंध नहीं है; द्रव्योंका अत्यन्त भिन्नपना है, एकपना नहीं है। कैसा है भेदज्ञानरूप अनुभव ? " अयं क्रकचवत् अदयं सद्यः भेदं उत्पाद्य " जिसने करोंत के समान शीघ्र ही जीव और पुद्गलका भेद उत्पन्न किया है ।। ५-५० ।।