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कहान जैन शास्त्रमाला]
जीव-अधिकार
[मालिनी] अवतरति न यावद्वृत्तिमत्यन्तवेगादनवमपरभावत्यागदृष्टान्तदृष्टिः। झटिति सकलभावैरन्यदीयैर्विमुक्ता स्वयमियमनुभूतिस्तावदाविर्बभूव ।। २९ ।।
[हरिगीत] परभाव के परित्याग की दृष्टि पुरानी न पड़े। अर जब तलक हे आत्मन् वृत्ति नहो अति बलवती।। व्यतिरिक्त जो परभाव से वह आतमा अति शिघ्र ही। अनुभूति में उतरा अरे चैतन्यमय वह स्वयं ही।।२९ ।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- "इयम् अनुभूतिः तावत् झटिति स्वयम् आविर्बभूव'' [इयम्] यह विद्यमान [ अनुभूतिः ] अनुभूति अर्थात् शुद्धचैतन्यवस्तुका प्रत्यक्ष जानपना [ तावत् ] उतने काल तक [ झटिति] उसी समय [ स्वयम्] सहज ही अपने ही परिणमनरूप [आविर्बभूव] प्रगट हुआ। कैसी है वह अनुभूति ? 'अन्यदीयैः सकलभावै: विमुक्ता'' [अन्यदीयैः ] शुद्ध चैतन्यस्वरूपसे अत्यंत भिन्न ऐसे द्रव्यकर्म ,भावकर्म और नोकर्मसंबंधी [सकलभावैः] 'सकल' अर्थात् जितने हैं गुणस्थान, मार्गणास्थानरूप जो राग, द्वेष, मोह इत्यादि अति बहुत विकल्प ऐसे जो 'भाव' अर्थात् विभावरूप परिणाम उनसे [विमुक्ता] सर्वथा रहित है।
भावार्थ इस प्रकार है कि जितने भी विभाव परिणामस्वरूप विकल्प हैं, अथवा मन-वचनसे उपचार कर द्रव्य-गुण-पर्याय भेदरूप अथवा उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य भेदरूप विकल्प हैं उनसे रहित शुद्धचेतनामात्रका आस्वादरूप ज्ञान उसका नाम अनुभव कहा जाता है। वह अनुभव जिस प्रकार होता है उसीको बतलाते हैं- "यावत् अपरभावत्यागदृष्टान्तदृष्टि: अत्यन्तवेगात् अनवम् वृत्तिम् न अवतरति'' [ यावत् ] जितने काल तक, जिस काल में [अपरभाव ] शुद्ध चैतन्यमात्रसे भिन्न द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्मरूप जो समस्त भाव उनके [ त्याग] 'ये भाव समस्त झूठे हैं, जीवके स्वरूप नहीं हैं' ऐसे प्रत्यक्ष आस्वादरूप ज्ञानके सूचक [ दृष्टान्त ] उदाहरणके समान।
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