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[ भगवान् श्री कुन्द - कुन्द
विवरण जैसे किसी पुरुषने धोबीके घरेसे अपने वस्त्रके धोकेसे दूसरेका वस्त्र आनेपर बिना पहिचानके उसे पहिनकर उसे अपना जाना। बादमें उस वस्त्रका धनी जो कोई था उसने अंञ्चल पकड़कर कहा कि ‘यह वस्त्र तो मेरा है, ' पुन: कहा कि 'मेरा ही है, ' ऐसा सुननेपर उस पुरूषने चिह्न देखा, जानाकि मेरा चिह्न तो मिलता नहीं इससे निश्चयसे यह वस्त्र मेरा नहीं है, दूसरेका है।' उसके ऐसी प्रतीति होनेपर त्याग हुआ घटित होता है । वस्त्र पहने ही है तो भी त्याग घटित होता है, क्योंकि स्वामित्वपना छूट गया है। उसी प्रकार अनादि कालसे जीव मिथ्यादृष्टि है, इसलिए कर्मसंयोगजनित है जो शरीर, दुःख-सुख, राग-द्वेष आदि विभाव पर्याय, उन्हें अपना ही कर जानता है और उन्हींरूप प्रवर्तता है। हेय उपादेय नहीं जानता है । इस प्रकार अनंत कालतक भ्रमण करते हुए जब थोड़ा संसार रहता है और परमगुरुका उपदेश प्राप्त होता है । उपदेश ऐसा कि 'भो जीव ! जितने हैं जो शरीर, सुख, दुःख, राग, द्वेष, मोह, जिनको तू अपनाकर जानता है और इनमें रत हुआ है वे तो सब ही तेरे नहीं है। अनादि कर्मसंयोगकी उपाधि हैं ।' ऐसा बार बार सुननेपर जीववस्तुका विचार उत्पन्न हुआ कि जीवका लक्षण तो शुद्ध चिद्रूप है, इस कारण यह सब उपाधि तो जीवकी नहीं है, कर्मसंयोगकी उपाधि है। ऐसा निश्चय जिस काल हुआ उसी काल सकल विभावभावों का त्याग है। शरीर, सुख, दुःख जैसे ही थे, वैसे ही हैं, परिणामोंसे त्याग है, क्योंकि स्वामित्वपना छूट गया है । इसीका नाम अनुभव है, इसीका नाम सम्यक्त्व है । इस प्रकार दृष्टान्तके समान उत्पन्न हुई है दृष्टि अर्थात् शुद्ध चिद्रूपका अनुभव जिसके ऐसा जो कोई जीव है वह [अनवम्] अनादि कालसे चले आरहे [ वृत्तिम् ] कर्मपर्यायके साथ एकत्वपनेके संस्कार तद्रूप [ न अवतरति ] नहीं परिणमता है । भावार्थ इस प्रकार है - कोई जानेगा कि जितना भी शरीर, सुख, दु:ख, राग, द्वेष, मोह है उसकी त्यागबुद्धि कुछ अन्य है - कारणरूप है। तथा शुद्ध चिद्रूपमात्रा अनुभव कुछ अन्य है- कार्यरूप है। उसके प्रति उत्तर इस प्रकार कि राग, द्वेष, मोह, शरीर, सुख, दुःख आदि विभाव पर्यायरूप परिणत हुए जीवका जिस कालमें ऐसा अशुद्ध परिणामरूप संस्कार छूट जाता है उसी कालमें इसके अनुभव है। उसका विवरण- जो शुद्ध चेतनामात्रका आस्वाद आये बिना अशुद्ध भावरूप परिणाम छूटता नहीं और अशुद्ध संस्कार छूटे बिना शुद्ध स्वरूपका अनुभव होता नहीं। इसलिये जो कुछ है सो एक ही काल, एक ही वस्तु, एक ही ज्ञान, एक ही स्वाद है। आगे जिसको शुद्ध अनुभव हुआ है वह जीव जैसा हे वैसा ही कहते हैं ।। २९ ।।
समयसार - कलश
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