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कहान जैन शास्त्रमाला]
साध्य-साधक-अधिकार
२४७
[पृथ्वी] इतो गतमनेकतां दधदितः सदाप्येकतामितः क्षणविभङ्गुरं ध्रुवमितः सदैवोदयात्। इतः परमविस्तृतं धृतमितः प्रदेशैर्निजैरहो सहजमात्मनस्तदिदमद्भुतं वैभवम्।। १०-२७३ ।।
[रोला] एक ओर एक स्वयं से सीमित अर ध्रुव। अन्य ओर से नेक क्षणिक विस्तारमयी है।। अहो आतमा का अद्भुत यह वैभव देखो। जिसे देखकर चकित जगतजन ज्ञानी होते।।२७३।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- "अहो आत्मनः तत् इदम् सहजम् वैभवम् अद्भुतं'' [अहो] संबोधन वचन। [आत्मनः ] जीव वस्तुकी [ तत् इदम् सहजम्] अनेकान्तस्वरूप ऐसी [ वैभवम् ] आत्माके गुणस्वरूप लक्ष्मी [ अद्भुतं] अचम्भा उपजाती है। किस कारणसे ऐसी है ? "इतः अनेकतां गतम्' [इतः] पर्यायरूप दृष्टिसे देखनेपर [अनेकतां] ‘अनेक है ऐसे भावको [गतम् ] प्राप्त हुई है। "इतः सदा अपि एकताम् दधत्'' [इतः] उसी वस्तुको द्रव्यरूपसे देखनेपर [ सदा अपि एकताम् दधत्] सदा ही एक है ऐसी प्रतीतिको उत्पन्न करती है। और कैसी है ? "इतः क्षणविभगुरं" [इतः] समय समय प्रति अखण्ड धाराप्रवाहरूप परिणमती है ऐसी दृष्टिसे देखनेपर [क्षणविभगुरं] विनशती है उपजती है। "इतः सदा एव उदयात् ध्रुवम्' [इतः] सर्व काल एकरूप है ऐसी दृष्टिसे देखनेपर [ सदा एव उदयात् ] सर्व काल अविनश्वर है ऐसा विचार करनेपर, [ध्रुवम् ] शाश्वत है। 'इतः परमविस्तृतं'' [इत:] वस्तुको प्रमाणदृष्टिसे देखनेपर [ परमविस्तृतं] प्रदेशोंसे लोकप्रमाण है, ज्ञानसे ज्ञेयप्रमाण है। ''इतः निजैः प्रदेश: धृतम्' [इतः] निज प्रमाणकी दृष्टिसे देखनेपर [ निजैः प्रदेशैः ] अपने प्रदेशमात्र [धृतम्] प्रमाण है।। १०-२७३।।
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