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समयसार-कलश
[भगवान् श्री कुन्द-कुन्द
[पृथ्वी] कषायकलिरेकतः स्खलति शान्तिरस्त्येकतो भवोपहतिरेकतः स्पृशति मुक्तिरप्येकतः। जगत्रितयमेकतः स्फुरति चिच्चकास्त्येकतः स्वभावमहिमात्मनो विजयतेऽद्भुतादद्भुतः।। ११-२७४।।
[रोला]
एक ओर से शान्त मुक्त चिन्मात्र दीखता, अन्य ओरसे भव-भव पिड़ित राग-द्वेष मय। तीन लोकमय भासित होता विविध नयों से, अहो आतमा का अद्भुत यह वैभव देखो।।२७४।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- "आत्मनः स्वभावमहिमा विजयते'' [आत्मनः] जीवद्रव्यकी [स्वभावमहिमा] स्वरूपकी बड़ाई [विजयते] सबसे उत्कृष्ट है। कैसी है महिमा ? "अद्भुतात् अद्भुतः'' आश्चर्यसे आश्चर्यरूप है। वह कैसा है आश्चर्य ? ''एकतः कषायकलिः स्खलति' [ एकतः] विभावपरिणामशक्तिरूप विचारनेपर [ कषाय] मोह-राग-द्वेषका [कलिः] उपद्रव होकर [ स्खलति] स्वरूपसे भ्रष्ट हो परिणमता है, ऐसा प्रगट ही है।''एकतः शान्तिः अस्ति'' [ एकतः] जीवके शुद्ध स्वरूप का विचार करनेपर [ शान्तिः अस्ति] चेतनामात्र स्वरूप है, रागादि अशुद्धपना विद्यमान ही नहीं है। और कैसा है ? "एकतः भवोपहतिः अस्ति'' [ एकतः] अनादि कर्मसंयोगरूप परिणमा है इस कारण [भव ] संसार चतुर्गतिमें [उपहतिः] अनेक बार परिभ्रमण [ अस्ति] है। “एकतः मुक्ति स्पृशति'' [ एकतः] जीवके शुद्ध स्वरूप का विचार करनेपर [ मुक्तिः स्पृशति] जीववस्तु सर्व काल मुक्त है ऐसा अनुभवमें आता है। और कैसा है ? "एकत: जगत्त्रितयम् स्फुरति''[एकतः ] जीवका स्वभाव स्वपरज्ञायक है ऐसा विचारनेपर [ जगत्] समस्त ज्ञेय वस्तुकी [त्रितयं] अतीत अनागत वर्तमानकालगोचर पर्याय [ स्फुरति] एक समयमात्र कालमें ज्ञानमें प्रतिबिम्बरूप है। "एकतः चित् चकास्ति'' [ एकतः] वस्तुके स्वरूप सत्तामात्र का विचार करनेपर [चित्] शुद्ध ज्ञानमात्र [चकास्ति] शोभित होता है। भावार्थ इस प्रकार है कि व्यवहार मात्रसे ज्ञान समस्त ज्ञेयको जानता है, निश्चयसे नहीं जानता है, अपना स्वरूपमात्र है, क्योंकि ज्ञेयके साथ व्याप्य-व्यापकरूप नहीं है।। ११-२७४।।
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