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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates २४६ समयसार-कलश [भगवान् श्री कुन्द-कुन्द [पृथ्वी] क्वचिल्लसति मेचकं क्वचिन्मेचकामेचकं क्वचित्पुनरमेचकं सहजमेव तत्त्वं मम। तथापि न विमोहयत्यमलमेधसां तन्मनः परस्परसुसंहतप्रकटशक्तिचक्रं स्फुरत्।।९-२७२।। [रोला] अरे अमेचक कभी कभी यह मेचक दिखता। कभी मेचकामेचक यह दिखाई देता है।। अनन्त शक्तियों कासमूह यह आतम फिरभी। दृष्टिवंत को भ्रमित नहीं होने देता है।।२७२।। खंडान्वय सहित अर्थ:- भावार्थ इस प्रकार है कि इस शास्त्रका नाम नाटक समयसार है, इसलिए जिस प्रकार नाटकमें एक भाव अनेक रूपसे दिखाया जाता है उसी प्रकार एक जीवद्रव्य अनेक भावों द्वारा साधा जाता है- "मम तत्त्वं'' मेरा ज्ञानमात्र जीवपदार्थ ऐसा है। कैसा है ? "क्वचित् मेचकं लसति'' कर्मसंयोगसे रागादि विभावरूप परिणतिसे देखनेपर अशुद्ध है ऐसा आस्वाद आता है।"पुनः'' एकान्तसे ऐसा ही है ऐसा नहीं है। ऐसा भी है- "क्वचित् अमेचकं' एक वस्तुमात्ररूप देखनेपर शुद्ध है। एकान्तसे ऐसा भी नहीं है। तो कैसा है ? "क्वचित् मेचकामेचकं'' अशुद्ध परिणतिरूप तथा वस्तुमात्ररूप एकही बारमें देखनेपर अशुद्ध भी है, शुद्ध भी है इस प्रकार दोनो विकल्प घटित होते हैं। ऐसा क्यों है? [ सहजं] स्वभावसे ऐसा ही है। "तथापि'' तो भी ''अमलमेधसां तत् मनः न विमोहयतिः' [अमलमेधसां] सम्यग्दृष्टि जीवोंकी [तत् मनः] तत्त्वज्ञानरूप है जो बुद्धि वह [न विमोहयति] संशयरूप नहीं होती -भ्रमको प्राप्त नहीं होती है। भावार्थ इस प्रकार है कि जीवका स्वरूप शुद्ध भी है, अशुद्ध भी है, शुद्ध-अशुद्ध भी है ऐसा कहनेपर अवधारण करनेमें भ्रमको स्थान है तथापि जो स्याद्वादरूप वस्तुका अवधारण करते हैं उनके लिए सुगम है, भ्रम नहीं उत्पन्न होता है। कैसी है वस्तु ? ''परस्परसुसंहतप्रकटशक्तिचक्रं" [ परस्परसुसंहत] परस्पर मिली हुई है [प्रकटशक्ति] स्वानुभवगोचर जो जीवकी अनेक शक्ति उनका [ चक्रं ] समूह है जीववस्तु। और कैसी है ? '' स्फुरत्'' सर्व काल उद्योतमान है।। ९२७२।। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008397
Book TitleSamaysara Kalash
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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