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समयसार-कलश
[भगवान् श्री कुन्द-कुन्द
भावार्थ इस प्रकार है कि सुख-दुःखका ज्ञायकमात्र है, परन्तु परद्रव्यरूप जानकर रंजक नहीं है। कैसा है सम्यग्दृष्टि जीव ? ''स्वतः एव तृप्तः'' शुद्ध स्वरूपके अनुभवनेपर होता है अतीन्द्रिय सुख, उससे तृप्त अर्थात् समाधानरूप है। "सः दशान्तरं एति'' [ सः] वह सम्यग्दृष्टि जीव [ दशान्तरं] निष्कर्म अवस्थारूप निर्वाणपदको [एति] प्राप्त करता है। कैसी है दशान्तर ? ''आपातकालरमणीयम्'' वर्तमान कालमें अनन्त सुखरूप बिराजमान है। "उदर्करम्यं'' आगामी अनन्त काल तक सुखरूप है। और कैसी है अवस्थान्तर ? "निष्कर्मशर्ममयम्'' सकल कर्मका विनाश होनेपर प्रगट होता है जो द्रव्यका सहजभूत अतीन्द्रिय अनन्त सुख, उसमय है-उससे एक सत्तारूप है।। ४०-२३२।।
[स्रग्धरा] अत्यन्तं भावयित्वा विरतिमविरतं कर्मणस्तत्फलाच प्रस्पष्टं नाटयित्वा प्रलयनमखिलाज्ञानसञ्चेतनायाः। पूर्णं कृत्वा स्वभावं स्वरसपरिगतं ज्ञानसञ्चेतनां स्वां सानन्दं नाटयन्तः प्रशमरसमितः सर्वकालं पिबन्तु।। ४१-२३३ ।।
[वसन्ततिलका] रे कर्म फल से सन्यास लेकर। सद्ज्ञान चेतना को निज में नचाओ।। प्याला पिओ नित प्रशमरस का निरन्तर, सुख में रहो अभी से चिरकाल तक तुम।।२३३ ।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- इतः प्रशमरसम् सर्वकालं पिबन्तु'' [इतः] यहाँसे लेकर [ सर्वकालं] आगामी अनन्त काल पर्यन्त [प्रशमरसम् पिबन्तु] अतीन्द्रिय सुखको आस्वादो। वे कौन ? "स्वां ज्ञानसञ्चेतनां सानन्दं नाटयन्तः''[स्वां] आपसम्बन्धी है जो [ ज्ञानसञ्चेतनां] शुद्ध ज्ञानमात्र परिणति, उसको [ सानन्दं नाटयन्तः] आनन्द सहित नचाते हैं अर्थात् अतीन्द्रिय सुख सहित ज्ञानचेतनारूप परिणमते हैं, ऐसे हैं जो जीव। क्या करके ? ' ' स्वभावं पूर्णं कृत्वा'' [स्वभावं] केवलज्ञान उसको [ पूर्णं कृत्वा] आवरण सहित था सो निरावरण किया। कैसा है स्वभाव ? "स्वरसपरिगतं'' चेतनारसका निधान है। और क्या करके ? "कर्मण: च तत्फलात् अत्यन्तं विरतिम् भावयित्वा'' [ कर्मणः ] ज्ञानावरणादि कर्मसे [च ] और [ तत्फलात् ] कर्मके फल सुख
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