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कहान जैन शास्त्रमाला]
सर्वविशुद्धज्ञान-अधिकार
२०७
[वसन्ततिलका] निःशेषकर्मफलसंन्यसनान्ममैवं सर्वक्रियान्तरविहारनिवृत्तवृत्तेः। चैतन्यलक्ष्म भवतो भृशमात्मतत्त्वं कालावलीयमचलस्य वहत्वनन्ता।। ३९-२३१ ।।
- [रोला] सब कर्मों के फल से सन्यासी होने से, आतम के अतिरिक्त प्रवृत्ति से निवृत्त हो। चिद्लक्षण आतम को अतिशय भोग रहा हूँ, यह प्रवृत्ति ही बनी रहे बस अमित इस काल तक।।२३१ ।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- ''मम एवं अनन्ता कालावली वहतु' [मम] मुझे [ एवं] कर्मचेतना कर्मफलचेतनासे रहित होकर शुद्ध ज्ञानचेतना सहित बिराजमानपनेसे [अनन्ता कालावली वहतु] अनन्त काल यों ही पूरा होओ। भावार्थ इस प्रकार है कि कर्मचेतना कर्मफलचेतना हेय, ज्ञानचेतना उपादेय। कैसा हूँ मैं ? "सर्वक्रियान्तरविहारनिवृत्तवृत्ते:'' [ सर्व] अनन्त ऐसी [ क्रियान्तर] शुद्ध ज्ञानचेतनासे अन्य-कर्मके उदय अशुद्ध परिणति, उसमें [विहार] विभावरूप परिणमता है जीव, उससे [ निवृत] रहित ऐसी है [ वृत्ते: ] ज्ञानचेतनामात्र प्रवृत्ति जिसकी, ऐसा हूँ। किस कारणसे ऐसा हूँ ? “निःशेषकर्मफलसंन्यसनात्'' [ निःशेष] समस्त [कर्म] ज्ञानावरणादिके [फल] संसार सम्बन्धी सुख-दुःखके [ संन्यसनात् ] स्वामित्वपनेके त्यागके कारण। और कैसा हूँ ? "भृशम् आत्मतत्त्वं भजत'' [ भृशम् ] निरन्तर [ आत्मतत्त्वं] शुद्ध चैतन्यवस्तुका [भजतः] अनुभव है जिसको, ऐसा हूँ। कैसा है आत्मतत्त्व ? 'चैतन्यलक्ष्म'' शुद्ध ज्ञानस्वरूप है। और कैसा है ? 'अचलस्य'' आगामी अनंत कालतक स्वरूपसे अमिट [अटल ] है।। ३९-२३१ ।।
[वसन्ततिलका] यः पूर्वभावकृतकर्मविषद्रुमाणां भुङ्क्ते फलानि न खलु स्वत एव तृप्तः। आपातकालरमणीयमुदर्करम्यं निष्कर्मशर्ममयमेति दशान्तरं सः।। ४०-२३२।।
[वसन्ततिलका] रे पूर्वभावकृत कर्मजहरतरु के, अज्ञानमय फल नहीं जो भोगते । अर तृप्त स्वयं में चिरकाल तकवे, निष्कर्म सुखमय दशा को भोगते।।२३२।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- "यः खलु पूर्वभावकृतकर्मविषद्रुमाणां फलानि न भुङ्क्ते'' [ यः] जो कोई सम्यग्दृष्टि जीव [ खलु ] सम्यक्त्व उत्पन्न हुए बिना [ पूर्वभाव] मिथ्यात्वभावके द्वारा [ कृत] उपार्जित [कर्म ] ज्ञानावरणादि पुद्गलपिण्डरूपी [ विषद्रुम ] चैतन्य प्राणघातक विषवृक्षके [ फलानि] संसार सम्बन्धी सुख-दुःखको [ न भुङ्क्ते] नहीं भोगता है।
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