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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates २०६ समयसार-कलश [भगवान् श्री कुन्द-कुन्द [उपजाति] समस्तमित्येवमपास्य कर्म त्रैकालिकं शुद्धनयावलम्बी। विलीनमोहो रहितं विकारैश्चिन्मात्रमात्मानमथावलम्बे।। ३७-२२९ ।। रोला तीन काल के सब कर्मों को छोड़ इसतरह, परमशुद्धनिश्चयनय का अवलम्बन लेकर। निर्मोही हो वर्त रहा हूँ स्वयं स्वयं के, शुद्ध बुद्ध चैतन्य परम निष्कर्म आत्म में।।२२९ ।। खंडान्वय सहित अर्थ:- “अथ विलीनमोहः चिन्मात्रम् आत्मानम् अवलम्बे'' [अथ ] अशुद्ध परिणतिके मिटनेके उपरान्त [विलीनमोहः ] मुलेसे ही मिटा है मिथ्यात्वपरिणाम जिसका ऐसा मैं [ चिन्मात्रम् आत्मानम् अवलम्बे ] ज्ञानस्वरूप जीव वस्तुको निरन्तर आस्वादता हूँ। कैसा आस्वादता हूँ ? "विकारैः रहितं'' जो राग-द्वेष-मोहरूप अशुद्ध परिणतिसे रहित है। ऐसा कैसा हूँ मैं ? "शुद्धनयावलम्बी'' [ शुद्धनय] शुद्ध जीव वस्तुका [ अवलम्बी] आलम्बन लेरहा हूँ, ऐसा हूँ। क्या करता हुआ ऐसा हूँ ? ''इत्येवम् समस्तम् कर्म अपास्य'' [इति एवम् पूर्वोक्त प्रकारसे [ समस्तम् कर्म] जितने हैं ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म रागादि भावकर्म उन्हें [अपास्य] जीवसे भिन्न जानकरस्वीकारको त्यागकर। कैसा है रागादि कर्म ? " त्रैकालिकं'' अतीत अनागत वर्तमान काल सम्बन्धी है।। ३७–२२९ ।। [आर्या] विगलन्तु कर्मविषतरुफलानि मम भुक्तिमन्तरेणैव। सञ्चेतयेऽहमचलं चैतन्यात्मानमात्मानम्।।३८-२३०।। [रोला] कर्म वृक्षके विषफल मेरे बिन भोगे ही, खिर जायें बस यही भावना भाता हूँ मैं। क्योंकि मैं तो वर्त रहा हूँ स्वयं स्वयं के, शुद्ध बुद्ध चैतन्य परम निष्कर्म आत्म में।।२३०।। खंडान्वय सहित अर्थ:- ''अहम् आत्मानं सञ्चेतये'' मैं शुद्ध चिद्रूपको-अपनेको आस्वादता हूँ। कैसा है आत्मा अर्थात् आप? ''चैतन्यात्मानम्'' ज्ञानस्वरूपमात्र है। और कैसा है ? "अचलं' अपने स्वरूपसे स्खलित नहीं है। अनुभवका फल कहते हैं-"कर्मविषतरुफलानि मम भुक्तिम् अन्तरेण एव विगलन्तु'' [ कर्म] ज्ञानावरणादि पुद्गलपिण्डरूप [विषतरु] विषका वृक्ष-क्योंकि चैतन्य प्राणका घातक है-उसके फलानि] फल अर्थात् उदयकी सामग्री [ मम भुक्तिम् अन्तरेण एव ] मेरे भोगे बिना ही [ विगलन्तु] मूलसे सत्ता सहित नाश होओ। भावार्थ इस प्रकार है कि कर्मका उदयहै सुख अथवा दुःख, उसका नाम है कर्मफलचेतना, उससे भिन्न स्वरूप आत्मा ऐसा जानकर सम्यग्दृष्टि जीव अनुभव करता है।। ३८-२३०।। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008397
Book TitleSamaysara Kalash
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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