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कहान जैन शास्त्रमाला]
सर्वविशुद्धज्ञान-अधिकार
२०५
[ आलोच्य ] शुद्ध जीवका स्वरूप नहीं है' ऐसा विचार करते हुए स्वामित्वपना छोड़कर। कैसा है कर्म ? “मोहविलासविजृम्भितम्'' [ मोह] मिथ्यात्वके [विलास] प्रभुत्वपनेके कारण [विजृम्भितम्] फैला हुआ है। कैसा हूँ मैं आत्मा ? ''चैतन्यात्मनि'' शुद्ध चेतनामात्र स्वरूप हूँ। और कैसा हूँ ? ''निष्कर्मणि'' समस्त कर्मकी उपाधिसे रहित हूँ।। ३५-२२७ ।।।
भविष्यके कर्मका प्रत्याख्यान करता है
न करिष्यामि न कारयिष्यामि न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि मनसा च वाचा च कायेन चेति।
खंडान्वय सहित अर्थ:- “न करिष्यामि'' आगामी कालमें रागादि अशुद्ध परिणामोंको नहीं करूँगा, “न कारयिष्यामि '' न कराऊँगा, "अन्यं कुर्वन्तम् न समनुज्ञास्यामि'' [अन्यं कुर्वन्तम्] सहज ही अशुद्ध परिणतिको करता है जो कोई जीव उसको [न समनुज्ञास्यामि ] अनुमोदन नहीं करूँगा ''मनसा'' मनसे ''वाचा'' वचनसे 'कायेन'' शरीरसे।
[आर्या] प्रत्याख्याय भविष्यत्कर्म समस्तं निरस्तसम्मोहः। आत्मनि चैतन्यात्मनि निष्कर्मणि नित्यमात्मना वर्ते।। ३६-२२८ ।।
[रोला] नष्ट होगया मोहभाव जिसका ऐसा मैं, करके प्रत्याखान भाविकर्मोंका अब तो। वर्त रहा हूँ अरे निरन्तर स्वयं स्वयं के, शुद्ध बुद्ध चैतन्य परम निष्कर्म आत्म में।।२२८ ।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- "निरस्तसम्मोहः आत्मना आत्मनि नित्यम् वर्ते'' [निरस्त] गई है [सम्मोहः ] मिथ्यात्वरूप अशुद्ध परिणति जिसकी ऐसा हूँ जो मैं सो [ आत्मना] अपने ज्ञानके बलसे [आत्मनि] अपने स्वरूपमें [ नित्यम् वर्ते] निरन्तर अनुभवरूप प्रवर्तता हूँ। कैसा है आत्मा अर्थात् आप? ''चैतन्यात्मनि' शुद्ध चेतनामात्र है। और कैसा है ? “निष्कर्मणि" समस्त कर्मकी उपाधिसे रहित है। क्या करके आत्मामें प्रवर्तता हूँ ? ''भविष्यत् समस्तं कर्म प्रत्याख्याय'' [ भविष्यत्] आगामी काल सम्बन्धी [ समस्तं कर्म ] जितने रागादि अशुद्ध विकल्प हैं वे [प्रत्याख्याय] शुद्ध स्वरूपसे अन्य हैं ऐसा जानकर अंगीकाररूप स्वामित्वको छोड़कर।। ३६-२२८ ।।
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* देखो पदटिप्पण पृ २०४।
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