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कहान जैन शास्त्रमाला]
सर्वविशुद्धज्ञान-अधिकार
२०९
दुःखसे [अत्यन्तं] अतिशयरूपसे [विरतिम्] शुद्ध स्वरूपसे भिन्न है ऐसा अनुभव होनेपर स्वामित्वपनेके त्यागको [ भावयित्वा] भाकर अर्थात् ऐसा सर्वथा निश्चय करके "अविरतं'' जिस प्रकार एक समयमात्र खण्ड न होवे उस प्रकार सर्व काल। और क्या करके ? "अखिलाज्ञानसञ्चेतनाया:प्रलयनम् प्रस्पष्टं नाटयित्वा'' सर्व मोह-राग-द्वेषरूप अशुद्ध परिणतिका भले प्रकार विनाश करके। भावार्थ इस प्रकार है कि मोह-राग-द्वेष परिणति विनशती है, शुद्ध ज्ञानचेतना प्रगट होती है, अतीन्द्रिय सुखरूप जीव परिणमता है। इतना कार्य जब होता है तब एक ही साथ होता है।। ४१-२३३ ।।
[वंशस्थ] इतः पदार्थप्रथनावगुण्ठनाद्विना कृतेरेकमनाकुलं ज्वलत्। समस्तवस्तुव्यतिरेकनिश्चयाद्विवेचितं ज्ञानमिहावतिष्ठते।।४२-२३४ ।।
[दोहा] अपने में ही मगन है अचल अनाकुल ज्ञान । यद्यपि जाने ज्ञेय को तदपि भिन्न ही जान।।२३४।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- "इतः इह ज्ञानम् अवतिष्ठते'' [इतः] अज्ञान-चेतनाके विनाश होनेके उपरान्त [इह] आगामी सर्वकाल [ ज्ञानम्] शुद्ध ज्ञानमात्र जीववस्तु [अवतिष्ठते] बिराजमान प्रवर्तती है। कैसा है ज्ञान [ज्ञानमात्र जीववस्तु] ? ''विवेचितं'' सर्वकाल समस्त परद्रव्यसे भिन्न है। किस कारणसे ऐसा जाना ? "समस्तवस्तुव्यतिरेकनिश्चयात्'' [ समस्तवस्तु] जितनी परद्रव्यकी उपाधि है उससे [ व्यतिरेक ] सर्वथा भिन्नरूप ऐसी है [ निश्चयात् ] अवश्य द्रव्यकी शक्ति उसके कारण। कैसा है ज्ञान ? ''एकम्" समस्त भेद विकल्पसे रहित है। और कैसा है ? "अनाकुलं' अनाकुलत्वलक्षण है अतीन्द्रिय सुख उससे बिराजमान है। और कैसा है ? “ज्वलत्'' सर्वकाल प्रकाशमान है। ऐसा क्यों है ? "पदार्थप्रथनावगुण्ठनात् विना'' [पदार्थ] जितने विषय उनका [ प्रथना] विस्तार–पाँच वर्ण, पाँचरस, दो गंध, आठ स्पर्श, शरीर मन वचन, सुख-दुःख इत्यादि-उसका [ अवगुण्ठनात् ] मालारूप गूंथना, उससे [ बिना] रहित है अर्थात् सर्व मालासे भिन्न है जीववस्तु। कैसी है विषयमाला ? "कृतेः'' पुद्गलद्रव्यकी पर्यायरूप है।। ४२२३४।।
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