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समयसार-कलश
[भगवान् श्री कुन्द-कुन्द
[मंदाक्रान्ता] रागद्वेषाविह हि भवति ज्ञानमज्ञानभावात् तौ वस्तुत्वप्रणिहितदृशा दृश्यमानौ न किञ्चित्। सम्यग्दृष्टि: क्षपयतु ततस्तत्त्वदृष्ट्या स्फुटन्तौ ज्ञानज्योतिर्व्वलति सहजं येन पूर्णाचलार्चिः।। २६-२१८ ।।
[रोला] यही ज्ञान अज्ञान भाव से राग द्वेषमय, हो जाता पर तत्त्वदृष्टि से वस्तु नहीं ये। तत्त्वदृष्टि के बल से क्षयकर इन भावों को, हो जाती है अचल सहज यह ज्योति प्रकाशित।।२१८ ।।
खंडान्वय सहित अर्थः- “ततः सम्यग्दृष्टि: स्फुटं तत्त्वदृष्ट्या तौ क्षपयतु'' [ततः ] तिस कारणसे [ सम्यग्दृष्टि:] शुद्धचैतन्य अनुभवशीली जीव [ स्फुटं तत्त्वदृष्ट्या ] प्रत्यक्षरूप है जो शुद्ध जीव स्वरूपका अनुभव उसके द्वारा [ तौ] राग-द्वेष दोनोंको [क्षपयतु] मूलसे मेटकर दूर करो।"येन ज्ञानज्योति: सहजं ज्वलति'' [येन] जिन राग-द्वेषके मेटनेसे [ ज्ञानज्योतिः सहजं ज्वलति] शुद्ध जीवका स्वरूप जैसा है वैसा सहज प्रगट होता है। कैसी है ज्ञानज्योति ? ""पूर्णाचलार्चिः' [पूर्ण] जैसा स्वभाव है ऐसा और [अचल ] सर्व काल अपने स्वरूप है ऐसा [अर्चिः ] प्रकाश है जिसका , ऐसी है। राग-द्वेषका स्वरूप कहते हैं- "हि ज्ञानम् अज्ञानभावात् इह रागद्वेषौ भवति'' [हि] जिस कारण [ज्ञानम्] जीवद्रव्य [अज्ञानभावात् ] अनादि कर्मसंयोगसे परिणमा है विभावपरिणति मिथ्यात्वरूप, उसके कारण [इह ] वर्तमान संसार अवस्थामें [ रागद्वेषौ भवति] राग-द्वेषरूप अशुद्ध परिणतिसे व्याप्य-व्यापकरूप आप परिणमता है। इस कारण "तौ वस्तुत्वप्रणिहितदृशा दृश्यमानौ न किञ्चित्'' [ तौ] राग-द्वेष दोनों जातिके अशुद्ध परिणाम [वस्तुत्वप्रणिहितदृशा दृश्यमानौ] सत्तास्वरूप दृष्टिसे विचार करनेपर [ न किञ्चित् ] कुछ वस्तु नहीं। भावार्थ इस प्रकार है कि जैसे सत्तास्वरूप एक जीव द्रव्य विद्यमान है वैसे राग-द्वेष कोई द्रव्य नहीं, जीवकी विभावपरिणति है। वही जीव जो अपने स्वभावरूप परिणमे तो रागद्वेष सर्वथा मिटे। ऐसा होना सुगम है कुछ मुश्किल नहीं है- अशुद्ध परिणति मिटती है शुद्ध परिणति होती है।। २६-२१८ ।।
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