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सर्वविशुद्धज्ञान - अधिकार
कहान जैन शास्त्रमाला ]
[ शालिनी ] रागद्वेषोत्पादकं तत्त्वदृष्ट्या नान्यद्द्रव्यं वीक्ष्यते किञ्चनापि । सर्वद्रव्योत्पत्तिरन्तश्चकास्ति
व्यक्तात्यन्तं स्वस्वभावेन यस्मात् ।। २७-२१९ ।।
[ रोला ]
तत्त्वदृष्टि से राग-द्वेष भावों का भाई, कर्ता-धर्त्ता कोई अन्य नहीं हो सकता । क्योंकि है अत्यन्त प्रगट यह बात जगत में, द्रव्योंका उत्पाद स्वयं से ही होता ।।२१९।।
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खंडान्वय सहित अर्थ:- भावार्थ इस प्रकार है कि कोई ऐसा मानता है कि जीवका स्वभाव राग-द्वेषरूप परिणमनेका नहीं है, परद्रव्य ज्ञानावरणादि कर्म तथा शरीर भोगसामग्री बलात्कार जीवको राग-द्वेषरूप परिणमाते हैं सो ऐसा तो नहीं, जीवकी विभावपरिणामशक्ति जीवमें है, इसलिए मिथ्यात्वके भ्रमरूप परिणमता हुआ राग-द्वेषरूप जीवद्रव्य आप परिणमता है, परद्रव्यका कुछ सहारा नहीं है। ऐसा कहते हैं- किञ्चन अपि अन्यद्रव्यं तत्त्वदृष्ट्या रागद्वेषोत्पादकं न वीक्ष्यते ' [ किञ्चन अपि अन्यद्रव्यं ] आठ कर्मरूप अथवा शरीर मन वचन नोकर्मरूप अथवा बाह्य भोगसामग्री इत्यादिरूप है जितना परद्रव्य वह [ तत्त्वदृष्ट्या ] द्रव्यके स्वरूप को देखते हुए साँची दृष्टिसे [ रागद्वेषोत्पादकं ] अशुद्ध चेतनारूप है जो राग-द्वेषपरिणाम उनको उत्पन्न करनेमें समर्थ [ न वीक्ष्यते] नहीं दिखलाई देता । कहे हुए अर्थको गाढ़ा - दृढ़ करते हैं- ' यस्मात् सर्वद्रव्योत्पत्तिः स्वस्वभावेन अन्तश्चकास्ति'' [ यस्मात् ] जिस कारणसे [ सर्वद्रव्य ] जीव पुद्गल धर्म अधर्म काल आकाशका [उत्पत्ति: ] अखण्ड धारारूप परिणाम [ स्वस्वभावेन ] अपने अपने स्वरूपसे है [अन्तः चकास्ति ] ऐसा ही अनुभवमें निश्चित होता है और ऐसे ही वस्तु सधती है, अन्यथा विपरीत है। कैसी है परिणति ? ' ' अत्यन्तं व्यक्ता" अति हि प्रगट है ।। २७–२१९ ।।
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