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________________ १९४ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates .. समयसार - कलश [ मन्दाक्रान्ता ] शुद्धद्रव्यस्वरसभवनात्किं स्वभावस्य शेषमन्यद्रव्यं भवति यदि वा तस्य किं स्यात्स्वभावः। ज्योत्स्नारूपं स्नपयति भुवं नैव तस्यास्ति भूमिर्ज्ञानं ज्ञेयं कलयति सदा ज्ञेयमस्यास्ति नैव ।। २४-२१६ ।। [ रोला ] शुद्ध द्रव्य का निजरसरूप परिणमन होता, वह पररूप या उसरूप नहीं हो सकते। अरे चाँदनी की ज्यों भूमि नहीं हो सकती, त्यों हि कभी नहीं हो सकते ज्ञेय ज्ञान के ।। २१६ ।। GG खंडान्वय सहित अर्थ:- ' सदा ज्ञानं ज्ञेयं कलयति अस्य ज्ञेयं न अस्ति एव ' ' [ सदा ] सर्व काल [ ज्ञानं ] अर्थग्रहणशक्ति [ ज्ञेयं ] स्वपरसम्बन्धी समस्त ज्ञेय वस्तुको [ कलयति ] एक समयमें द्रव्य - गुण - पर्यायभेद युक्त जैसी है उस प्रकार जानता है। एक विशेष - [ अस्य ] ज्ञानके सम्बन्धसे [ ज्ञेयं न अस्ति ] ज्ञेयवस्तु ज्ञानसे सम्बन्धरूप नहीं है । [ एव ] निश्चयसे ऐसा ही है । दृष्टांत कहते हैज्योत्स्नारूपं भुवं स्नपयति तस्य भूमिः न अस्ति एव [ ज्योत्स्नारूपं ] चन्द्रिकाका प्रसार [भुवं स्नपयति ] भूमिको श्वेत करता है । एक विशेष - [ तस्य ] ज्योत्स्नाके प्रसारके सम्बन्धसे [ भूमि: न अस्ति ] भूमि ज्योत्स्नारूप नहीं होती । भावार्थ इस प्रकार है कि जिस प्रकार ज्योत्स्ना फैलती है, समस्त भूमि श्वेत होती है तथापि ज्योत्स्नाका भूमिका सम्बन्ध नहीं है उसी प्रकार ज्ञान समस्त ज्ञेयको जानता है तथापि ज्ञानका ज्ञेयका सम्बन्ध नहीं है। ऐसा वस्तुका स्वभाव है। ऐसा कोई नहीं माने उसके प्रति युक्तिके द्वारा घटित करते हैं. 'शुद्धद्रव्यस्वरसभवनात् ' ' शुद्ध द्रव्य अपने अपने स्वभावमें रहता है तो ' स्वभावस्य शेषं किं'' [ स्वभावस्य ] सत्तामात्र वस्तुका [ शेषं किं ] क्या बचा? भावार्थ इस प्रकार है कि सत्तामात्र वस्तु निर्विभाग एकरूप है, जिसके दो भाग होते नहीं । यदि वा " जो कभी अन्यद्रव्यं भवति'' अनादिनिधन सत्तारूप वस्तु अन्य सत्तारूप होवे तो 'तस्य स्वभावः किं स्यात् ' ' [ तस्य ] पहले साधीहुई सत्तारूप वस्तुका [ स्वभावः किं स्यात् ] जो पूर्वका सत्त्व अन्य सत्त्वरूप होवे तो पूर्व सत्तामेंसे क्या बचा ? अपितु पूर्व सत्ताका विनाश सिद्ध होता "" 66 .. । भावार्थ इस प्रकार है कि जिस प्रकार जीवद्रव्य चेतनासत्तारूप है, निर्विभाग है सो चेतनासत्ता जो कभी पुद्गलद्रव्य-अचेतनारूप हो जाय तो चेतनासत्ताका विनाश होना कौन मेट सकता है ? सो वस्तुका स्वरूप ऐसा तो नहीं है, इसलिए जो द्रव्य जैसा है जिस प्रकार है वैसा ही है अन्यथा होत नहीं। इसलिए जीवका ज्ञान समस्त ज्ञेयको जानता है तो जानो तथापि जीव अपने स्वरूप ।। २४२९६ ।। [ भगवान् श्री कुन्दकुन्द - Please inform us of any errors on rajesh@Atma Dharma.com
SR No.008397
Book TitleSamaysara Kalash
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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