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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates कहान जैन शास्त्रमाला] सर्वविशुद्धज्ञान-अधिकार १९३ [शार्दूलविक्रीडित] शुद्धद्रव्यनिरूपणार्पितमतेस्तत्त्वं समुत्पश्यतो नैकद्रव्यगतं चकास्ति किमपि द्रव्यान्तरं जातुचित्। ज्ञानं ज्ञेयमवैति यत्तु तदयं शुद्धस्वभावोदयः किं द्रव्यान्तरचुम्बनाकुलधियस्तत्त्वाच्च्यवन्ते जनाः।। २३-२१५ ।। [रोला] एक द्रव्य में अन्य द्रव्य रहता हो- ऐसा। भासित कभी नहीं होता है ज्ञानिजनों को।। शुद्धभाव का उदय ज्ञेय का ज्ञान , न जाने। फिर भी क्यों अज्ञानी जन आकुल होते हैं।।२१५ ।। खंडान्वय सहित अर्थ:- "जनाः तत्त्वात् किं च्यवन्ते' [ जनाः] समस्त संसारी जीव [ तत्त्वात् ] ' जीव वस्तु सर्व काल शुद्धस्वरूप है, समस्त ज्ञेयको जानती है ऐसे अनुभवसे [ किं च्यवन्ते] क्यों भ्रष्ट होते हैं ? भावार्थ इस प्रकार है कि वस्तुका स्वरूप तो प्रगट है, भ्रम क्यों करते हैं ? कैसे हैं जन ? "द्रव्यान्तरचुम्बनाकुलधियः'' [ द्रव्यान्तर] ' समस्त ज्ञेयवस्तुको जानता है जीव, इससे [चुम्बन] अशुद्ध हुआ है जीवद्रव्य ऐसा जानकर [आकुलधियः] 'ज्ञेयवस्तुका जानपना कैसे छूटे, जिसके छूटनेसे जीव द्रव्य शुद्ध होवे ऐसी हुई है बुद्धि जिनकी, ऐसे हैं। "तु'' उसका समाधान ऐसा है कि "यत् ज्ञानं ज्ञेयम् अवैति तत् अयं शुद्धस्वभावोदयः'' [यत् ] जो ऐसा है कि [ ज्ञानं ज्ञेयम् अवैति] 'ज्ञान ज्ञेयको जानता है ऐसा प्रगट है [तत् अयं] सो यह [शुद्धस्वभावोदयः] शुद्ध जीववस्तुका स्वरूप है। भावार्थ इस प्रकार है कि जिस प्रकार अग्निका दाहकस्वभाव है, समस्त दाह्यवस्तुको जलाती है। जलाती हुई अग्नि अपने शुद्धस्वरूप है। अग्निका ऐसा ही स्वभाव है उसी प्रकार जीव ज्ञानस्वरूप है, समस्त ज्ञेयको जानता है। जानता हुआ अपने स्वरूप है ऐसा वस्तुका स्वभाव है। ज्ञेयके जानपनेसे जीवका अशुद्धपना मानता है सो मत मानो, जीव शुद्ध है। और समाधान करते हैं। कारण कि “किम् अपि द्रव्यान्तरं एकद्रव्यगतं न चकास्ति' [किम् अपि द्रव्यान्तरं] कोई ज्ञेयरूप पुद्गल द्रव्य अथवा धर्म, अधर्म, आकाश, काल द्रव्य [ एकद्रव्य ] शुद्ध जीव वस्तुमें [गतं] एक द्रव्यरूपसे परिणमता है ऐसा [न चकास्ति] नहीं शोभता है। भावार्थ इस प्रकार है कि जीव समस्त ज्ञेयको जानता है, ज्ञान ज्ञानरूप है, ज्ञेयवस्तु ज्ञेयरूप है। कोई द्रव्य अपने द्रव्यत्वको छोड़कर अन्य द्रव्य रूप तो नहीं हुआ ऐसा अनुभव जिसको है सो कहते है-''शुद्धद्रव्यनिरूपणार्पितमतेः'' [शुद्धद्रव्य ] समस्त विकल्पसे रहित शुद्ध चेतनामात्र जीववस्तुके [ निरूपण ] प्रत्यक्ष अनुभवमें [अर्पितमतेः] स्थापित किया है बुद्धिका सर्वस्व जिसने ऐसे जीवके। और कैसे जीवके ? "तत्त्वं समुत्पश्यतः'' सत्तामात्र शुद्ध जीववस्तुको प्रत्यक्ष आस्वादता है ऐसे जीवके। भावार्थ इस प्रकार है कि जीव समस्त ज्ञेयको जानता है, समस्त ज्ञेयसे भिन्न है ऐसा स्वभाव सम्यग्दृष्टि जीव जानता है।। २३-२१५ ।। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008397
Book TitleSamaysara Kalash
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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