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कहान जैन शास्त्रमाला]
सर्वविशुद्धज्ञान-अधिकार
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इसलिए जो कोई आपको सुख चाहते हैं वे स्याद्वादसूत्रके द्वारा जैसा आत्माका स्वरूप साधा गया है वैसा मानिएगा ।। १६-२०८।।
[शार्दूलविक्रीडित] कर्तुर्वेदयितुश्च युक्तिवशतो भेदोऽस्त्वभेदोऽपि वा कर्ता वेदयिता च मा भवतु वा वस्त्वेव सञ्चिन्त्यताम्। प्रोता सूत्र इवात्मनीह निपुणैर्भेत्तुं न शक्या क्वचिचिच्चिन्तामणिमालिकेयमभितोऽप्येका चकास्त्वेव नः।। १७-२०९ ।।
[रोला] कर्ता-भोक्ता में अभेद हो युक्तिवश से, भले भेद हो अथवा दोनो ही न होवें। ज्यों मणियों की माला भेदी नहीं जा सके, त्यों अभेद आतम का अनुभव हमें सदा हो।।२०९।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- "निपुणैः वस्तु एव सञ्चिन्त्यताम्'' [निपुणैः] शुद्धस्वरूप अनुभवमें प्रवीण हैं ऐसे जो सम्यग्दृष्टि जीव, उनको [ वस्तु एव] समस्त विकल्पसे रहित निर्विकल्प सत्तामात्र चैतन्यस्वरूप [ सञ्चिन्त्यताम्] स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे अनुभव करने योग्य है। "कर्तुः च वेदयितु: युक्तिवशतः भेदः अस्तु अथवा अभेदः अस्तु'' [ कर्तुः ] कर्ता [च और [ वेदयितुः] भोक्तामें [ युक्तिवशतः] द्रव्यार्थिक नय पर्यायार्थिक नयका भेद करनेपर [भेद: अस्तु] अन्य पर्याय करती है, अन्य पर्याय भोगती है, पर्यायार्थिक नयसे ऐसा भेद है तो होओ। ऐसा साधनेपर साध्यसिद्धि तो कुछ नहीं है। [अथवा] द्रव्यार्थिकनयसे [अभेदः ] जो जीव द्रव्य ज्ञानावरणादि कर्म का कर्ता है वही जीव द्रव्य भोक्ता है ऐसा [ अस्तु] भी है तो ऐसा भी होओ, इस में भी साध्य सिद्धि तो कुछ नहीं है। "वा कर्ता च वेदयिता वा मा भवतु"[वा] कर्तृत्वनयसे [कर्ता] जीव अपने भावोंका कर्ता है [च] तथा भोक्तृत्वनयसे [ वेदयिता] जिसरूप परिणमता है उस परिणामका भोक्ता है ऐसा है तो ऐसा ही होओ। ऐसा विचार करनेपर शुद्धस्वरूपका अनुभव तो नहीं है। कारण कि ऐसा विचारना अशुद्धरूप विकल्प है। [वा] अथवा अकर्तृत्वनयसे जीव अकर्ता है [च] तथा अभोकतृत्व नयसे जीव [ मा] भोक्ता नहीं है [भवतु] कर्ता-भोक्ता नहीं है तो मत ही होओ। ऐसा विचार करनेपर भी शुद्धस्वरूपका अनुभव नहीं है। कारण कि "प्रोता इह आत्मनि क्वचित् भर्तुं न शक्यः'' [प्रोता] कोई नय विकल्प। उसका विवरण- अन्य करता है अन्य भोगता है ऐसा विकल्प अथवा जीव कर्ता है भोक्ता है ऐसा विकल्प अथवा जीव कर्ता नहीं है भोक्ता नहीं है ऐसा विकल्प इत्यादि अनन्त विकल्प हैं तो भी उनमेंसे कोई विकल्प [इह आत्मनि] शुद्ध वस्तुमात्र है जीवद्रव्य उसमें [क्वचित् ] किसी भी कालमें [ भर्तुं न शक्यः] शुद्धस्वरूपके अनुभवरूप स्थापनेको समर्थ नहीं है। भावार्थ इस प्रकार है कि कोई अज्ञानी ऐसा जानेगा कि इस स्थलमें ग्रंथकर्ता आचार्यने कर्तापन अकर्तापन भोक्तापन अभोक्तापन बहुत प्रकारसे कहा
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