SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 217
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates १८६ समयसार-कलश [भगवान् श्री कुन्द-कुन्द [शार्दूलविक्रीडित] आत्मानं परिशुद्धमीप्सुभिरतिव्याप्तिं प्रपद्यान्धकैः कालोपाधिबलादशुद्धिमधिकां तत्रापि मत्वा परैः। चैतन्यं क्षणिकं प्रकल्प्य पृथुकैः शुद्धर्जुसूत्रे रतैः आत्मा व्युज्झित एष हारवदहो निःसूत्रमुक्तेक्षिभिः ।। १६-२०८ ।। रोला] यह आतम है क्षणिक क्योंकि यह परमशुद्ध है। जहाँ काल की भी उपाधि की नहीं अशुद्धि।। इसी धारणा से छूटा त्यों नित्य आतमा। ज्यों डोरा बिन मुक्तामणि से हार न बनता।।२०८ ।। खंडान्वय सहित अर्थ:- एकान्तपनेसे जो माना जाय सो मिथ्यात्व है। "अहो पृथुकैः एषः आत्मा व्युज्झितः'' [अहो] भो जीव! [ पृथुकै:] नाना प्रकार अभिप्राय है जिनका ऐसे जो मिथ्यादृष्टि जीव हैं उनको [ एषः आत्मा] विद्यमान शुद्ध चैतन्यवस्तु [व्युज्झितः] सधी नहीं। कैसे हैं एकान्तवादी ? "शुद्धर्जुसूत्रे रतैः'' [ शुद्ध ] *द्रव्यार्थिकनयसे रहित [ ऋजुसूत्रे ] वर्तमान पर्यायमात्रमें वस्तुरूप अंगीकार करनेरूप एकान्तपनेमें [ रतैः] मग्न हैं। "चैतन्यं क्षणिकं प्रकल्प्य'' एक समयमात्रमें एक जीव मूलसे विनश जाता है, अन्य जीव मुलसे उत्पन्न होता है ऐसा मानकर बौद्धमतके जीवोंको जीवस्वरूपकी प्राप्ति नहीं है। तथा मतान्तर कहते हैं –'अपरैः तत्रापि कालोपाधिबलात् अधिकां अशुद्धिं मत्वा'' [अपरैः] कोई मिथ्यादृष्टि एकांतवादी ऐसे हैं जो जीवका शुद्धपना नहीं मानते हैं। सर्वथा अशुद्धपना मानते हैं। उन्हें भी वस्तुकी प्राप्ति नहीं है ऐसा कहते हैं[ कालोपाधिबलात्] अनन्त काल हुआ जीवद्रव्य कर्मके साथ मिला हुआ ही चला आया है, भिन्न तो हुआ नहीं ऐसा मानकर [ तत्र अपि] उस जीवमें [अधिकां अशुद्धिं मत्वा ] जीवद्रव्य अशुद्ध है, शुद्ध है ही नहीं ऐसी प्रतीति करते हैं जो जीव उन्हें भी वस्तुकी प्राप्ति नहीं है। मतान्तर कहते हैं"अन्धकै: अतिव्याप्तिं प्रपद्य'' [अन्धकैः] एकान्त मिथ्यादृष्टि जीव कोई ऐसे हैं जो [ अतिव्याप्ति प्रपद्य] कर्मकी उपाधिको नहीं मानते हैं। 'आत्मानं परिशुद्धम् ईप्सुभिः'' जीवद्रव्यको सर्व काल सर्वथा शुद्ध मानते हैं। उन्हें भी स्वरूपकी प्राप्ति नहीं है। कैसे हैं एकान्तवादी ? “निःसूत्रमुक्तक्षिभिः'' [ निःसूत्र] स्याद्वाद सूत्र बिना [ मुक्तेक्षिभिः] सकल कर्मके क्षयलक्षण मोक्षको चाहते हैं, उनके प्राप्ति नहीं है। उनका दृष्टान्त-"हारवत्'' हारके समान। भावार्थ इस प्रकार है कि जिस प्रकार सूतके बिना मोती नहीं सधता है -हार नहीं होता है उसी प्रकार स्याद्वादसूत्रके ज्ञान बिना एकान्तवादोंके द्वारा आत्माका स्वरूप नहीं सधता है - आत्मस्वरूपकी प्राप्ति नहीं होती है. * यहाँ पर 'द्रव्यार्थिकनयसे रहित' पाठके स्थानमें हस्तलिखित एवं पहली मुद्रित प्रतिमें 'पर्यायार्थिकनयसे रहित' ऐसा पाठ है जो भूलसे आपड़ा मालुम पड़ता है। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008397
Book TitleSamaysara Kalash
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy