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सर्वविशुद्धज्ञान - अधिकार
[ अनुष्टुप ]
कहान जैन शास्त्रमाला ]
वृत्त्यंशभेदतोऽत्यन्तं वृत्तिमन्नाशकल्पनात्।
अन्य: करोति भुङ्क्तेऽन्य इत्येकान्तश्चकास्तु मा ।। १५-२०७ ।।
[ सोरठा ]
वृत्तिमान हो नष्ट, वृत्त्यंशों के भेद से।
कर्त्ता भोक्ता भिन्न; इस भय से मानो नहीं । ।२०७
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खंडान्वय सहित अर्थ:- क्षणिकवादी प्रतिबोधित किया जाता है - " इति एकान्तः मा चकास्तु'' [ इति ] इस प्रकार [ एकान्तः ] द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिकके भेद बिना किये ' सर्वथा ऐसा ही है ऐसा कहना [ मा चकास्तु ] किसी जीवको स्वप्नमात्रमें भी ऐसा श्रद्धान मत होओ। ऐसा कैसे ? ' अन्यः करोति अन्यः भुंङ्क्ते ' ' [ अन्यः करोति ] अन्य प्रथम समयका उत्पन्न हुआ कोई जीव कर्मका उपार्जन करता है [अन्य: भुंङ्क्ते ] अन्य दूसरे समयका उत्पन्न हुआ जीव कर्मको भोगता है ऐसा एकान्तपना मिथ्यात्व है । भावार्थ इस प्रकार है जीववस्तु द्रव्यरूप है, पर्यायरूप है। इसलिए द्रव्यरूपसे विचार करनेपर जो जीव कर्मका उपार्जन करता है वही जीव उदय आनेपर भोगता है। पर्यायरूपसे विचार करनेपर जिस परिणाम अवस्थामें ज्ञानावरणादि कर्मका उपार्जन करता है, उदय आनेपर उन परिणामका अवस्थान्तर होता है; इसलिए अन्य पर्याय करती है अन्य पर्याय भोगती है। ऐसा भाव स्याद्वाद साध सकता है। जैसा बौद्धमतका जीव कहता है वह तो महाविपरीत है। सो कौन विपरीतपना ? 'अत्यन्तं वृत्त्यंशभेदतः वृत्तिमन्नाशकल्पनात् '' [ अत्यन्तं ] द्रव्यका ऐसा ही स्वरूप है सहारा किसका । [ वृत्ति ] अवस्था, उसका [ अंश ] एक द्रव्यकी अनन्त अवस्था ऐसा [ भेदत: ] कोई अवस्था विनश जाती है, अन्य कोई अवस्था उत्पन्न होती है ऐसा अवस्थाभेद विद्यमान है। ऐसे अवस्थाभेदका छल पकड़कर कोई बौद्धमतका मिथ्यादृष्टि जीव [ वृत्तिमन्नाशकल्पनात् ] वृत्तिमान् - जिसका अवस्थाभेद होता है ऐसी सत्तारूप शाश्वत वस्तुका नाश कल्पना- मूलसे सत्ताका नाश मानता है, इसलिए ऐसा कहना विपरीतपना है। भावार्थ इस प्रकार है कि बौद्धमतका जीव पर्यायमात्रको वस्तु मानता है, पर्याय जिसकी है ऐसी सत्तामात्र वस्तुको नहीं मानता है। इस कारण ऐसा मानता है सो महामिथ्यात्व है ।। १५–२०७।।
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