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-१०सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
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[ मंदाक्रान्ता] नीत्वा सम्यक् प्रलयमखिलान् कर्तृभोक्त्रादिभावान् दूरीभूतः प्रतिपदमयं बन्धमोक्षप्रक्लृप्तेः। शुद्धः शुद्धः स्वरसविसरापूर्णपुण्याचलार्चि - ष्टंकोत्कीर्णप्रकटमहिमा स्फूर्जति ज्ञानपुञ्जः।। १-१९३ ।।
[रोला] जिसने कर्तृ-भोक्तृभाव सब नष्ट कर दिये, बन्ध-मोक्ष की रचना से जो सदा दूर है। है अपार महिमा जिसकी टंकोत्कीर्ण जो, ज्ञानपुज वह शुद्धातम शोभायमान है।।१९३।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- ''अयं ज्ञानपुञ्जः स्फूर्जति'' [अयं] यह विद्यमान [ ज्ञानपुञ्जः] शुद्ध जीवद्रव्य [ स्फुर्जति] प्रगट होता है। भावार्थ इस प्रकार है कि यहाँसे लेकर जीवका जैसा शुद्ध स्वरूप है उसे कहते हैं। कैसा है ज्ञानपुंज? "टकोत्कीर्णप्रकटमहिमा'' [टकोत्कीर्ण] सर्व काल एकरूप ऐसा है [प्रकट] स्वानुभवगोचर [ महिमा] स्वभाव जिसका, ऐसा है। और कैसा है ? ''स्वरसविसरापूर्णपुण्याचलार्चिः'' [स्वरस] शुद्ध ज्ञानचेतनाके [ विसर] अनन्त अंशभेदसे [आपूर्ण] संपूर्ण ऐसा है [पुण्य] निरावरण ज्योतिरूप [अचल ] निश्चल [अर्चिः ] प्रकाशस्वरूप जिसका, ऐसा है। और कैसा है ? "शुद्धः शुद्धः'' शुद्ध शुद्ध है, अर्थात् दो बार शुद्ध कहनेसे अति ही विशुद्ध है। और कैसा है ? ''बन्धमोक्षप्रक्लृप्तेः प्रतिपदम् दूरीभूतः'' [ बन्ध] ज्ञानावरणादि कर्मपिण्ड से सम्बन्धरूप एकक्षेत्रावगाह, [मोक्ष ] सकल कर्मका नाश होनेपर जीवके स्वरूपका प्रगटपना, ऐसे [प्रक्लप्ते:] जो दो विकल्प, उनसे [प्रतिपदम्] एकेन्द्रियसे लेकर पंचेन्द्रिय पर्यायरूप जहाँ है वहाँ [ दूरीभूतः ] अति ही भिन्न है। भावार्थ इस प्रकार है कि एकेन्द्रियसे लेकर पंचेन्द्रिय तक जीवद्रव्य जहाँ तहाँ द्रव्यस्वरूपके विचारकी अपेक्षा बन्ध ऐसे मुक्त ऐसे विकल्पसे रहित है। द्रव्यका स्वरूप जैसा है वैसा ही है। क्या करता हुआ जीवद्रव्य ऐसा है ? "अखिलान् कर्तृभोक्त्रादिभावान् सम्यक् प्रलयम् नीत्वा'' [ अखिलान्] गणना करनेपर अनन्त हैं ऐसे जो [कर्तृ] ‘जीव कर्ता है ऐसा विकल्प [भोक्तृ] - जीव भोक्ता है' ऐसा विकल्प, [ आदिभावान्] इनसे लेकर अनन्त भेद उनका [ सम्यक् ] मूलसे [प्रलयम् नीत्वा] विनाश कर। ऐसा कहते हैं।। १-१९३।।
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