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समयसार-कलश
[ भगवान् श्री कुन्द-कुन्द
[अनुष्टुप] कर्तृत्वं न स्वभावोऽस्य चितो वेदयितृत्ववत्। अज्ञानादेव कर्तायं तदभावादकारकः।। २-१९४ ।।
[दोहा जैसे भोक्त स्वभाव नहीं वैसे कर्तृस्वभाव । कर्तापन अज्ञान से ज्ञान अकारक भाव ।।१९४ ।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- "अस्य चितः कर्तृत्वं न स्वभावः'' [अस्य चितः] चैतन्यमात्र स्वरूप जीवका [कर्तृत्वं] ज्ञानावरणादि कर्मको करे अथवा रागादि परिणामको करे ऐसा [ न स्वभावः] सहजका गण नहीं है। दष्टान्त कहते है- "वेदयितत्ववत' जिस प्रकार जीव कर्मका भोक्ता भी नहीं है। भावार्थ इस प्रकार है कि जीवद्रव्य कर्मका भोक्ता हो तो कर्ता होवे सो तो भोक्ता भी नहीं है, इससे कर्ता भी नहीं है। 'अयं कर्ता अज्ञानात् एव'' [अयं] यह जीव [कर्ता] रागादि अशुद्ध परिणामको करता है ऐसा भी है सो किस कारणसे ? [ अज्ञानात् एव] कर्मजनित भावमें आत्मबुद्धि ऐसा है जो मिथ्यात्वरूप विभावपरिणाम, उसके कारण जीव कर्ता है। भावार्थ इस प्रकार है कि जीव वस्तु रागादि विभावपरिणामका कर्ता है ऐसा जीव का स्वभावगुण नहीं है। परन्तु अशुद्धरूप विभावपरिणति है। "तदभावात् अकारक:'' [ तदभावात्] मिथ्यात्व राग द्वेषरूप विभावपरिणति मिटती है सो उसके मिटनेसे [ अकारक:] जीव सर्वथा अकर्ता होता है।। २-१९४ ।।
__ [शिखरिणी] अकर्ता जीवोऽयं स्थित इति विशुद्धः स्वरसतः स्फुरचिज्ज्योतिर्भिश्छुरितभुवनाभोगभवनः। तथाप्यस्यासौ स्याद्यदिह किल बन्धः प्रकृतिभिः स खल्वज्ञानस्य स्फुरति महिमा कोऽपि गहनः।। ३-१९५।।
[रोला] निज रस से सुविशुद्ध जीव शोभायमान है, झलके लोकालोक ज्योति स्फुरायमान है।। अहो अकर्ता आतम फिर भी बन्ध हो रहा, यह अपार महिमा जानो अज्ञान भाव की।।१९५।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- "अयं जीवः अकर्ता इति स्वरसतः स्थितः" [अयं जीवः ] विद्यमान है जो चैतन्यद्रव्य वह [अकर्ता] ज्ञानावरणादिका अथवा रागादि अशुद्ध परिणामका कर्ता नहीं है [इति] ऐसा सहज [स्वरसतः स्थितः] स्वभावसे अनादिनिधन ऐसा ही है। कैसा है ? "विशुद्ध:'' द्रव्यकी अपेक्षा द्रव्यकर्म भावकर्म
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