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कहान जैन शास्त्रमाला ]
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मोक्ष-अधिकार
[ शार्दूलविक्रीडित]
त्यक्त्वाऽशुद्धिविधायि तत्किल परद्रव्यं समग्रं स्वयं स्वद्रव्ये रतिमेति यः स नियतं सर्वापराधच्युतः। बन्धध्वंसमुपेत्य नित्यमुदितः स्वज्योतिरच्छोच्छलच्चैतन्यामृतपूरपूर्णमहिमा शुद्धो भवन्मुच्यते । । १२-१९१।।
[ रोला ] अरे अशुद्धता करनेवाले परद्रव्यों को, अरे दूर से त्याग स्वयं में लीन रहे जो । अपराधों से दूर बन्धका नाश करें वे, शुद्धभाव को प्राप्त मुक्त हो जाते हैं वे । । ९९९ ।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- 'स: मुच्यते'' [सः] सम्यग्दृष्टि जीव [ मुच्यते ] सकल कर्मोका क्षयकर अतीन्द्रिय सुखलक्षण मोक्षको प्राप्त होता है। कैसा है ? " शुद्धो भवन् '' राग-द्वेष-मोहरूप अशुद्ध परिणतिसे भिन्न होता हुआ । और कैसा है ? ' ' स्वज्योतिरच्छोच्छलचैतन्यामृतपूरपूर्णमहिमा '' [ स्वज्योतिः] द्रव्यके स्वभाव गुणरूप [ अच्छ ] निर्मल [ उच्छलत् ] धाराप्रवाहरूप परिणमनशील ऐसा जो [ चैतन्य ] चेतनागुण, उसरूप जो [ अमृत ] अतीन्द्रिय सुख, उसके [पूर ] प्रवाहसे [ पूर्ण ] तन्मय है [ महिमा ] माहात्म्य जिसका, ऐसा । और कैसा है ? " नित्यम् उदित: " सर्व काल अतीन्द्रिय सुखस्वरूप है। और कैसा है ? " नियतं सर्वापराधच्युत:' [ नियतं ] अवश्यकर [ सर्वापराध ] जितने सूक्ष्म - स्थूलरूप राग द्वेष मोहपरिणाम उनसे [ च्युतः ] सर्व प्रकार रहित है। क्या करता हुआ ऐसा होता है ? '' बन्धध्वंसम् उपेत्य '' [ बन्ध ] ज्ञानावरणादि पुद्गलकर्मकी बन्धरूप पर्यायके [ ध्वंसम् ] सत्ताके नाशरूप [ उपेत्य ] अवस्थाको प्राप्तकर। और क्या करता हुआ ऐसा होता है? ‘— तत् समग्रं परद्रव्यं स्वयं त्यक्त्वा '' द्रव्यकर्म भावकर्म नोकर्मसामग्रीनके मूलसे ममत्व को स्वयं छोड़कर। कैसा है परद्रव्य ? 'अशुद्धिविधायि" अशुद्ध परिणतिको बाह्यरूप निमित्तमात्र है। 'किल'' निश्चयसे । " य: स्वद्रव्ये रतिम् एति ' [ य: ] जो सम्यग्दृष्टि जीव [ स्वद्रव्ये ] शुद्ध चैतन्यमें [ रतिम् एति ] निर्विकल्प अनुभवसे उत्पन्न हुए सुखमें मग्नपनाको प्राप्त हुआ है । भावार्थ इस प्रकार है सर्व अशुद्धपनाके मिटनेसे शुद्धपना होता है। उसके सहाराका है शुद्ध चिद्रूपका अनुभव, ऐसा मोक्षमार्ग है।। १२–१९१९।।
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