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समयसार - कलश
[ पृथ्वी ]
प्रमादकलितः कथं भवति शुद्धभावोऽलसः कषायभरगौरवादलसता प्रमादो यतः। अतः स्वरसनिर्भरे नियमितः स्वभावे भवन् मुनिः परमशुद्धतां व्रजति मुच्यते चाऽचिरात् ।। ११-१९९०।।
[ रोला ]
कषायभाव से आलस करना ही प्रमाद है, यह प्रमाद का भाव शुद्ध कैसे हो सकता ? निजरस से परिपूर्ण भाव में अचल रहें जो, अल्पकाल में वे मुनिवर ही बन्धमुक्त हों । । ९९० ।।
[ भगवान् श्री कुन्दकुन्द -
खंडान्वय सहित अर्थ:- " 'अलसः प्रमादकलितः शुद्धभावः कथं भवति' [ अलस: ] अनुभवमें शिथिल हैं ऐसा जीव । और कैसा है ? [ प्रमादकलितः ] नाना प्रकारके विकल्पोंसे संयुक्त हैं ऐसा जीव [ शुद्धभावः कथं भवति ] शुद्धोपयोगी कैसे होता है, अपितु नहीं होता। '' यतः अलसता प्रमादः कषायभरगौरवात्'' [ यतः ] जिस कारणसे [ अलसता ] अनुभवमें शिथिलता [ प्रमादः ] नाना प्रकारका विकल्प है। किस कारणसे होता है ? [ कषाय ] रागादि अशुद्ध परिणतिके [ भर ] उदयके [ गौरवात् ] तीव्रपनासे होता है । भावार्थ इस प्रकार है कि जो जीव शिथिल है, विकल्प करता है वह जीव शुद्ध नहीं है। कारण कि शिथिलपना विकल्पपना अशुद्धपनाका मूल है। '' अतः मुनिः परमशुद्धतां व्रजति च अचिरात् मुच्यते ' [ अतः ] इस कारणसे [ मुनि: ] सम्यग्दृष्टि जीव [ परमशुद्धतां व्रजति ] शुद्धोपयोग परिणतिरूप परिणमता है [च] ऐसा होता हुआ [ अचिरात् मुच्यते] उसी काल कर्मबन्धसे मुक्त होता हे। कैसा है मुनि ? स्वभावे नियमितः भवन् " [ स्वभावे ] शुद्ध स्वरूपमें [ नियमितः भवन् ] एकाग्ररूपसे मग्न होता हुआ । कैसा है स्वभाव ? स्वरसनिर्भरे '' [ स्वरस ] चेतनागुणसे [ निर्भरे ] परिपूर्ण है । । ११ - १९० ।।
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