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कहान जैन शास्त्रमाला]
मोक्ष-अधिकार
१६९
[वसन्ततिलका] यत्र प्रतिक्रमणमेव विषं प्रणीतं तत्राप्रतिक्रमणमेव सुधा कुतः स्यात्। तत्किं प्रमाद्यति जनः प्रपतन्नधोऽध: किं नोर्ध्वमूर्ध्वमधिरोहति निष्प्रमादः।। १०-१८९ ।।
[रोला प्रतिक्रमण भी अरे जहाँ विष-जहर कहा हो, अमृत कैसे कहें वहाँ अप्रतिक्रमण को ।। अरे प्रमादी लोग आधो-अध: क्यों जाते हैं ? इस प्रमाद को त्याग उर्ध्व में क्यों नहीं जाते ?।।१८९ ।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- ''तत् जन: किं प्रमाद्यति'' [तत् ] तिस कारणसे [जन:] समस्त संसारी जीवराशि [ किं प्रमाद्यति] क्यों प्रमाद करती है ? भावार्थ इस प्रकार है कि कृपासागर है सूत्रके कर्ता आचार्य वे ऐसा कहते हैं कि नाना प्रकारके विकल्प करनेसे साध्यसिद्धि तो नहीं है। कैसा है नाना प्रकारका विकल्प करनेवाला जन ? 'अधः अध: प्रपतन्'' जैसे जैसे अधिक क्रिया करता है, अधिक अधिक विकल्प करता है वैसे वैसे अनुभवसे भ्रष्टसे भ्रष्ट होता है। तिस कारणसे "जनः ऊर्ध्वम् ऊर्ध्वम् किं न अधिरोहति'' [जन:] समस्त संसारी जीवराशि [ ऊर्ध्वम् ऊर्ध्वम् ] निर्विकल्पसे निर्विकल्प अनुभवरूप [किं न अधिरोहति] क्यों नहीं परिणमता है। कैसा है जन ?
'निःप्रमादः'' निर्विकल्प है। कैसा है निर्विकल्प अनुभव ? 'यत्र प्रतिक्रमणम् विषं एव प्रणीतं" [ यत्र] जिसमें [प्रतिक्रमणम् ] पठन पाठन स्मरण चिन्तवन स्तुति वन्दना इत्यादि अनेक क्रियारूप विकल्प [विषं एव प्रणीतं] विषके समान कहा है। "तत्र अप्रतिक्रमणम् सुधाकुट: एव स्यात्'' [तत्र] उस निर्विकल्प अनुभवमें [ अप्रतिक्रमणम् ] न पढ़ना, न पढ़ाना, न वन्दना, न निन्दना ऐसा भाव [ सुधाकुटः एव स्यात् ] अमृतके निधानके समान है। भावार्थ ऐसा है कि निर्विकल्प अनुभव सुखरूप है, इसलिए उपादेय है, नाना प्रकारके विकल्प आकुलतारूप हैं, इसलिए हेय हैं।। १०१८९ ।।
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