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समयसार-कलश
[ भगवान् श्री कुन्द-कुन्द
किसी भी कालमें [बन्धनं] पूर्वोक्त कर्मबन्धको [न स्पृशति] नहीं छूता है, [ एव] निश्चयसे। आगे सापराध-निरपराधका लक्षण कहते हैं-'अयम् अशुद्धं स्वं नियतम् भजन सापराधः भवति'' [अयम् ] मिथ्यादृष्टि जीव [अशुद्धं ] रागादि अशुद्ध परिणामरूप परिणमा है ऐसे [ स्वं] आपसम्बन्धी जीवद्रव्यको [ नियतम् भजन्] ऐसा ही निरंतर अनुभवता हुआ [ सापराध: भवति] अपराध सहित होता है।" साधु शुद्धात्मसेवी निरपराधः भवति'' [ साधु] जैसा है वैसा [शुद्धात्म] सकल रागादि अशुद्धपनासे भिन्न शुद्ध चिद्रूपमात्र ऐसे जीवद्रव्यके [ सेवी] अनुभवसे बिराजमान है जो सम्यग्दृष्टि जीव वह [ निरपराधः भवति] सर्व अपराधसे रहित है। इसलिए कर्मका बंधक नहीं होता।। ८१८७।।
अतो हताः प्रमादिनो गताः सुखासीनतां प्रलीनं चापलमुन्मूलितमालंबनम्। आत्मन्येवालानितं च चित्त मासंपूर्णविज्ञानघनोपलब्धेः ।।९-१८८।।
[हरिगीत] अरे मुक्तिमार्ग में चापल्य अर परमाद को। है नहीं कोई जगह कोई और आलम्बन नहीं।। बस इसलिए ही जब तलक आनन्दघन निज आतमा। की प्राप्ति न हो तब तलक तुम नित्य ध्यावो आतमा।।१८८।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- "अतः प्रमादिनः हताः'' [अत: प्रमादिनः] शुद्ध स्वरूपकी प्राप्तिसे भ्रष्ट हैं जो जीव वे [हता:] मोक्षमार्गके अधिकारी नहीं हैं। ऐसे मिथ्यादृष्टि जीवोंका धिक्कार किया है। कैसे है ? ""सुखासीनतां गताः'' कर्मके उदयसे प्राप्त जो भोगसामग्री उसमें सुखकी वांछा करते हैं। "चापलम् प्रलीनं'' [चापलम्] रागादि अशुद्ध परिणामोंसे होती है सर्व प्रदेशोंमें आकुलता [प्रलीनं] वह भी हेय की। "आलम्बनम् उन्मूलितम्'' [आलम्बनम्] बुद्धिपूर्वक ज्ञान करते हुए जितना पढना विचारना चितवन करना स्मरण करना इत्यादि हैं वह [ उन्मलितम ] मोक्षका कारण नहीं है ऐसा जानकर हेय ठहराया है। "आत्मनि एव चित्तम आलानितं' | आत्मनि एव । शुद्धस्वरूपमें एकाग्र होकर [चित्तम् आलानितं] मनको बाँधा है। ऐसा कार्य जिस प्रकार हुआ उस प्रकार कहते हैं-"आसम्पूर्णविज्ञानघनोपलब्धेः'' [आसम्पूर्णविज्ञान] निरावरण केवलज्ञान उसका [घन] समूह जो आत्मद्रव्य उसकी [ उपलब्धेः] प्रत्यक्ष प्राप्ति होनेसे।। ९-१८८ ।।
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