SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 193
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates १६२ समयसार-कलश [ भगवान् श्री कुन्द-कुन्द तथापि वर्तमानमें स्वरूपका विचार करनेपर चेतना भूमिमात्र तो जीववस्तु है। उसमें मोह राग द्वेषरूप रंजकपना कर्मके उदयकी उपाधि है। वस्तुका स्वभावगुण नहीं है। इस प्रकार विचार करनेपर भेदभिन्न प्रतीति उत्पन्न होती है जो अनुभवगोचर है। कोई प्रश्न करता है कि कितने कालके भीतर प्रज्ञाछैनी गिरती है-भिन्न-भिन्न करती है ? उत्तर इस प्रकार है – 'रभसात्'' अति सूक्ष्म काल - एक समयमें गिरती है, उसी काल भिन्न-भिन्न करती है। कैसी है प्रज्ञाछैनी ? ''निपुणैः कथमपि पातिता'' [निपुणैः] आत्मानुभवमें प्रवीण है जो सम्यग्दृष्टि जीव उनके द्वारा [कथम् अपि] संसारका निकटपना ऐसी काललब्धि प्राप्त होनेसे [पातिता] स्वरूपमें पैठानेसे पैठती है। भावार्थ इस प्रकार है कि भेदविज्ञान बुद्धिपूर्वक विकल्परूप है, ग्राह्य-ग्राहकरूप है, शुद्धस्वरूपके समान निर्विकल्प नहीं है। इसलिए उपायरूप है। कैसे हैं सम्यग्दृष्टि जीव ? ''सावधान:'' जीवका स्वरूप कर्मका स्वरूप उनके भिन्न भिन्न विचारमें जागरूक हैं, प्रमादी नहीं है। कैसी है प्रज्ञाछैनी ? 'अभितः भिन्नभिन्नौ कुर्वती'' [अभितः] सर्वथा प्रकार [भिन्नभिन्नौ कुर्वती] जीवको कर्मको जुदा जुदा करती है । जिस प्रकार भिन्न भिन्न करती है उस प्रकार कहते हैं-''चैतन्यपूरे आत्मानं मग्नं कुर्वती अज्ञानभावे बन्धं नियमितं कुर्वती'' [ चैतन्य ] स्वपरस्वरूप ग्राहक ऐसा जो प्रकाशगुण उसके [ पूरे] त्रिकालगोचर प्रवाहमें [आत्मानं] जीवद्रव्यको [ मग्नं कुर्वती] एक वस्तुरूप ऐसा साधती है। भावार्थ इस प्रकार है कि शुद्धचेतनामात्र जीवका स्वरूप है ऐसा अनुभवगोचर आता है। [अज्ञानभावे] रागादिपनामें [नियमितं बन्धं कुर्वती] नियमसे बंधका स्वभाव है ऐसा साधती है। भावार्थ इस प्रकार है कि रागादि अशुद्धपना कर्मबंधकी उपाधि है, जीवका स्वरूप नहीं है ऐसा अनुभवगोचर आता है। कैसा है चैतन्यपूर ? "अन्तःस्थिरविशदलसद्धाम्नि'' [अन्तः] सर्व असंख्यात प्रदेशोंमें एकस्वरूप, [ स्थिर] सर्व काल शाश्वत, [ विशद] सर्व काल शुद्धत्वरूप और [ लसत्] सर्व काल प्रत्यक्ष ऐसा [धाम्नि ] केवलज्ञान केवलदर्शन तेजःपुंज है जिसका, ऐसा है।। २–१८१।। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008397
Book TitleSamaysara Kalash
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy