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कहान जैन शास्त्रमाला]
मोक्ष-अधिकार
१६१
मोक्षका कारण जैसा है वैसा कहते हैं - "इयं प्रज्ञाच्छेत्री आत्मकर्मोभयस्य अन्तःसन्धिबन्धे निपतति'' [इयं] वस्तुस्वरूपसे प्रगट है जो [प्रज्ञा] आत्माके शुद्धस्वरूप अनुभव समर्थपनेसे परिणमा हुआ जीवका ज्ञानगुण, वही है [छेत्री ] छैनी। भावार्थ इस प्रकार है कि सामान्यतया जिस किसी वस्तुको छेदकर दो करते हैं सो छैनीके द्वारा छेदते हैं। यहाँ भी जीव कर्मको छेदकर दो करना है, उनको दो रूपसे छेदने के लिए स्वरूपअनुभव समर्थ ज्ञानरूप छैनी है। और तो दूसरा कारण न हुआ, न होगा। ऐसी प्रज्ञाछैनी जिस प्रकार छेदकर दो करती हैं उस प्रकार कहते हैं - [ आत्मकर्मोभयस्य ] आत्मा-चेतनामात्र द्रव्य, कर्म-पुद्गलका पिण्ड अथवा मोह राग द्वेषरूप अशुद्ध परिणति ऐसी है उभय-दो वस्तुएँ, उनको [अन्तःसन्धि] यद्यपि एकक्षेत्रावगाहरूप है, बन्धपर्यायरूप है, अशुद्धत्व विकाररूप परिणमा है तथापि परस्पर सन्धि है, निःसन्धि नहीं हुआ है, दो द्रव्योंका एक द्रव्यरूप नहीं हुआ है ऐसा है जो [बन्धे] ज्ञानछैनीके पैठनेका स्थान, उसमें [निपतति] ज्ञानछैनी पैठती है। पैठी हुई छेदकर भिन्न-भिन्न करती है। कैसी है प्रज्ञाछैनी ? “शिता' ज्ञानावरणीय कर्मका क्षयोपशम होनेपर मिथ्यात्वकर्मका नाश होनेपर शुद्ध चैतन्यस्वरूपमें अत्यंत पैठन समर्थ है। भावार्थ इस प्रकार है कि जिस प्रकार यद्यपि लोहसारकी छैनी अति पैनी होती है तो भी सन्धिका विचार करने पर [ मारने से ] छेदकर दो करदेती है उसी प्रकार यद्यपि सम्यग्दृष्टि जीवका ज्ञान अत्यंत तीक्ष्ण है तथापि जीव-कर्मकी है जो भीतरमें सन्धि उसमें प्रवेश करनेपर प्रथम तो बुद्धिगोचर छेदकर दो करता है। पश्चात् सकलकर्मका क्षय होनेसे साक्षात् छेदकर भिन्न भिन्न करता है। कैसा है जीव-कर्मका अन्तःसन्धिबन्ध ? "सूक्ष्मे'' अति ही दुर्लक्ष्य सन्धिरूप है। उसका विवरण इस प्रकार है कि जो द्रव्यकर्म है ज्ञानावरणादि पुद्गलका पिण्ड, वह यद्यपि एकक्षेत्रावगाहरूप है, तथापि उसकी तो जीवसे भिन्नपनेकी प्रतीति विचारनेपर उत्पन्न होती है; कारण कि द्रव्यकर्म पुद्गलपिण्डरूप है, यद्यपि एकक्षेत्रावगाहरूप है तथापि भिन्न भिन्न प्रदेश है, अचेतन है. बँधता है. खलता है ऐसा विचार करनेपर भिन्नपनाकी प्रतीति उत्पन्न होती है। नोकर्म है
-मन-वचन उससे भी उस प्रकारसे विचारने पर भेद प्रतीति उत्पन्न होती है। भावकर्म जो मोह राग द्वेषरूप अशुद्ध चेतनारूप परिणाम वे अशुद्ध परिणाम वर्तमानमें जीवके साथ एकपरिणमनरूप हैं, तथा अशुद्ध परिणामके साथ वर्तमानमें जीव व्याप्य-व्यापकरूप परिणमता है। इस कारण उन परिणामोंका जीवसे भिन्नपनेका अनुभव कठिन है। तथापि सूक्ष्म सन्धिका भेद पाड़नेपर भिन्न प्रतीति होती है। उसका विचार ऐसा है कि जिस प्रकार स्फटिकमणि स्वरूपसे स्वच्छतामात्र वस्तु है। लाल पीली काली पुरीका [आश्रयरूप वस्तुका] संयोग प्राप्त होनेसे लाल पीली काली इसरूप स्फटिकमणि झलकती है। वर्तमानमें स्वरूपका विचार करनेपर स्वच्छतामात्र भूमिका स्फटिकमणि वस्तु है। उसमें लाल पीला कालापन परसंयोगकी उपाधि है। स्फटिकमणिका स्वभावगुण नहीं है। उसी प्रकार जीवद्रव्यका स्वच्छ चेतनामात्र स्वभाव है। अनादि सन्तानरूप मोहकर्मके उदयसे मोह राग द्वेषरूप रंजक अशुद्ध चेतनारूप परिणमता है।
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