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कहान जैन शास्त्रमाला]
मोक्ष-अधिकार
१६३
[शार्दूलविक्रीडित] भित्त्वा सर्वमपि स्वलक्षणबलाद्रेत्तुं हि यच्छक्यते चिन्मुद्राङ्कितनिर्विभागमहिमा शुद्धश्चिदेवास्म्यहम्। भिद्यन्ते यदि कारकाणि यदि वा धर्मा गुणा वा यदि भिद्यन्तां न भिदास्ति काचन विभौ भावे विशुद्ध चिति।।३-१८२।।
[हरिगीत] स्वलक्षणों के प्रबल बलसे भेदकर परभाव को। चिदलक्षणों से ग्रहण कर चैतन्यमय निजभाव को।। यदि भेद को भी प्राप्त हो गुण धर्म कारक आदि से। तो भले हो पर मैं तो केवल शुद्ध चिन्मयमात्र हूँ।।१८२।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- भावार्थ इस प्रकार है कि जिसके शुद्धस्वरूपका अनुभव होता है वह जीव ऐसा परिणाम संस्कार वाला होता है 'अहम् शुद्धः चित् अस्मि एव'' [अहम् ] मैं [शुद्धः चित् अस्मि] शुद्ध चैतन्यमात्र हूँ। [एव] निश्चयसे ऐसा ही हूँ। “चिन्मुद्राङ्कितनिर्विभागमहिमा'' [ चिन्मुद्रा] चेतनागुण उसके द्वारा [ अङ्कित] चिह्नित कर दी ऐसी है [ निर्विभाग] भेदसे रहित [ महिमा] बड़ाई जिसकी ऐसा हूँ। ऐसा अनुभव जिस प्रकार होता है उस प्रकार कहते है-''सर्वम् अपि भित्त्वा'' [ सर्वम् ] जितनी कर्मके उदयकी उपाधि है उसको [ भित्त्वा] अनादि कालसे आपा जानकर अनुभवता था सो परद्रव्य जानकर स्वामित्व छोड़ दिया। कैसा है परद्रव्य ? " यत् तु भेत्तुम् शक्यते''[यत् तु] जो कर्मरूप परद्रव्य वस्तु [भेत्तुं शक्यते] जीवसे भिन्न करनेको शक्य है अर्थात् दूर किया जा सकता है। किस कारणसे ? ''स्वलक्षणबलात्'' [स्वलक्षण] जीवका लक्षण चेतन, कर्मका लक्षण अचेतन ऐसा भेद उसके [बलात्] सहायसे। कैसा हूँ मैं ? "यदि कारकाणि वा धर्माः वा गुणाः भिद्यन्ते भिद्यन्तां चिति भावे काचन भिदा न'' [ यदि] जो [कारकाणि] आत्मा आत्माको आत्मा के द्वारा आत्मामें ऐसा भेद [ वा] अथवा [धर्माः ] उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप द्रव्यगुण-पर्यायरूप भेदबुद्धि अथवा [ गुणा:] ज्ञानगुण दर्शनगुण सुखगुण इत्यादि अनन्त गुणरूप भेदबुद्धि [भिद्यन्ते] जो ऐसा भेद वचनके द्वारा उपजाया हुआ उपजता है [ तदा भिद्यन्तां] तो वचनमात्र भेद होवो। परंतु [ चिति भावे] चैतन्यसत्तामें तो [ काचन भिदा न] कोई भेद नहीं है। निर्विकल्पमात्र चैतन्य वस्तुका सत्त्व है। कैसा है चैतन्यभाव ? “विभौ'' अपने स्वरूपको व्यापनशील है। और कैसा है ? ' ' विशुद्ध'' सर्व कर्मकी उपाधिसे रहित है।। ३–१८२।।
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