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समयसार-कलश
[ भगवान् श्री कुन्द-कुन्द
[अनुष्टुप] इति वस्तुस्वभावं स्वं ज्ञानी जानाति तेन सः। रागादीन्नात्मनः कुर्यान्नातो भवति कारकः।।१४-१७६ ।।
[दोहा ऐसे वस्तुस्वभाव को जाने विज्ञ सदीव। अपनापन ना राग में अतः अकारक जीव।।१७६ ।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- "ज्ञानी इति वस्तुस्वभावं स्वं जानाति'' [ ज्ञानी] सम्यग्दृष्टि जीव [ इति] पर्वोक्त प्रकार [ वस्तस्वभावं ] द्रव्यका स्वरूप ऐसा जो [ स्वं] अपना शुद्ध चैतन्य, उसको | जानाति ] आस्वादरूप अनुभवता है, "तेन स: रागादीन आत्मनः न कर्यात'' [ तेन] तिस कारणसे [ स:] सम्यग्दृष्टि जीव [रागादीन] राग द्वेष मोहरूप अशुद्ध परिणाम [आत्मनः] जीवद्रव्यके स्वरूप है ऐसा [ न कर्यात ] नहीं अनभवता है. कर्मके उदयकी उपाधि है ऐसा अनभवता है। "अतः कारकः न भवति'' [अतः] इस कारणसे [ कारक:] रागादि अशुद्ध परिणामोंका कर्ता [न भवति] नहीं होता। भावार्थ इस प्रकार है कि सम्यग्दृष्टि जीवके रागादि अशुद्ध परिणामोंका स्वामित्वपना नहीं है, इसलिए सम्यग्दृष्टि जीव कर्ता नहीं है।। १४-१७६ ।।
[अनुष्टुप] इति वस्तुस्वभावं स्वं नाज्ञानी वेत्ति तेन सः। रागादीनात्मनः कुर्यादतो भवति कारकः ।। १५-१७७।।*
[दोहा] ऐसे वस्तु स्वभाव को ना जाने अल्पज्ञ। धरे एकता राग में नहीं अकारक अज्ञ।।१७७।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- ''अज्ञानी इति वस्तुस्वभावं स्वं न वेत्ति'' [अज्ञानी] मिथ्यादृष्टि जीव [इति] पूर्वोक्त प्रकार [ वस्तुस्वभावं] द्रव्यका स्वरूप ऐसा जो [स्वं] अपना शुद्ध चैतन्य, उसको[ न वेत्ति ] आस्वादरूप नहीं अनुभवता है, "तेन सः रागादीन् आत्मनः कुर्यात्''[तेन] तिस कारणसे [ सः] मिथ्यादृष्टि जीव [ रागादीन्] राग-द्वेष- मोहरूप अशुद्ध परिणाम [आत्मनः] जीवद्रव्यके स्वरूप है ऐसा [कुर्यात्] अनभवता है, कर्मके उदयकी उपाधि है ऐसा नहीं अनभवता है, "अतः कारक: भवति'' [अतः] इस कारणसे [कारक:] रागादि अशुद्ध परिणामोंका कर्ता [भवति] होता है। भावार्थ इस प्रकार है कि मिथ्यादृष्टि जीवके रागादि अशुद्ध परिणामोंका स्वामित्वपना है, इसलिए मिथ्यादृष्टि जीव कर्ता है।। १५-१७७।।
* पंडित श्री राजमल्लजीकी टीकामें यह श्लोक एवं उसका अर्थ छूट गया है। श्लोक नं १७६के आधारसे इस श्लोकका 'खंडान्वय सहित अर्थ' बनाकर यहाँ पादटिप्पण में दिया है।
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