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कहान जैन शास्त्रमाला]
बंध-अधिकार
१५७
[शार्दूलविक्रीडित] इत्यालोच्य विवेच्य तत्किल परद्रव्यं समग्रं बलात् तन्मूलां बहुभावसन्ततिमिमामुद्धर्तुकामः समम्। आत्मानं समुपैति निर्भरवहत्पूर्णैकसंविद्युतं येनोन्मूलितबन्ध एष भगवानात्मात्मनि स्फूर्जति।।१६-१७८ ।।
[सवैया इकतीसा] परद्रव्य है निमित्त परभाव नैमित्तिक, नैमित्तिक भावों से कषायवान हो रहा। भावीकर्मबन्धन हो इन कषायभावों से , बंधन में आतमा विलायमान हो रहा।। इस प्रकार जान परभावों की संतति को, जड़से उखाड़ स्फुरायमान हो रहा। आनन्दकन्द निज आतम के वेदन में, निज भगवान शोभायमान हो रहा।।१७८।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- "एष: आत्मा आत्मानं समुपैति येन आत्मनि स्फुर्जति'' [ एष: आत्मा] प्रत्यक्ष है जो जीवद्रव्य वह [आत्मानं समुपैति] अनादि कालसे स्वरूपसे भ्रष्ट हुआ था तथापि इस अनुक्रमसे अपने स्वरूपको प्राप्त हुआ। [येन] जिस स्वरूपकी प्राप्तिके कारण [ आत्मनि स्फर्जति] परद्रव्य से सम्बन्ध छट गया. आपसे सम्बन्ध रहा। कैसा है ? "उन्मलितबन्धः | उन्मूलित ] मूल सत्तासे दूर किया है [ बन्धः] ज्ञानावरणादि कर्मरूप पुदगलद्रव्यका पिण्ड जिसने ऐसा है। और कैसा है? "भगवान" ज्ञानस्वरूप है। कैसा करके अनभवता है? "निर्भरवहत्पूर्णैकसंविद्युतं'' [निर्भर] अनंत शक्तिके पुजुरूपसे [ वहत्] निरंतर परिणमता है ऐसा जो [ पूर्ण] स्वरससे भरा हुआ [ एकसंवित्] विशुद्ध ज्ञान, उससे [ युतं] मिला हुआ है ऐसे शुद्ध स्वरूपको अनभवता है। और कैसा है आत्मा ? ''इमाम बहभावसन्ततिम समम उद्धर्तकामः'' [इमाम् ] कहा है स्वरूप जिसका ऐसा है [ बहुभाव] राग द्वेष मोह आदि अनेक प्रकारके अशुद्ध परिणाम उनकी [ सन्ततिम्] परम्परा, उसको [ समम् ] एक ही कालमें [ उद्धर्तुकामः ] उखाड़कर दर करनेका है अभिप्राय जिसका ऐसा है। कैसी है भावसंतति? "तन्मलां' परद्रव्यका स्वामित्वपना है मूल कारण जिसका ऐसी है। क्या करके ? “किल बलात् तत् समग्रं परद्रव्यं इति आलोच्य विवेच्य'' [किल] निश्चयसे [बलात् ] ज्ञानके बलकर [ तत्] द्रव्यकर्म भावकर्म नोकर्मरूप [ समग्रं परद्रव्यं ] ऐसी है जितनी पुद्गलद्रव्यकी विचित्र परिणति, उसको [इति आलोच्य ] पूर्वोक्त प्रकार से विचारकर [ विवेच्य] शुद्ध ज्ञानस्वरूपसे भिन्न किया है। भावार्थ इस प्रकार है कि शुद्ध स्वरूप उपादेय है, अन्य समस्त परद्रव्य हेय है।। १६-१७८ ।।
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