SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 185
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates १५४ समयसार-कलश [ भगवान् श्री कुन्द-कुन्द क्या करके ? ''तत् सम्यक् निश्चयं आक्रम्य''[ तत्] तिस कारणसे [ सम्यक् निश्चयम्] निर्विकल्प वस्तुमात्रको [आक्रम्य] जैसी है वैसी अनुभवगोचर कर। कैसा है निश्चय ? "एकम् एव''[ एकम्] निर्विकल्प वस्तुमात्र है,[ एव] निश्चयसे। और कैसा है ? ''निष्कम्पम्'' सर्व उपाधिसे रहित है। ''यत् सर्वत्र अध्यवसानम् अखिलं एव त्याज्यं'' [यत्] जिस कारणसे [ सर्वत्र अध्यवसानम्] ' मैं मारूँ, मैं जिलाऊँ, मैं दु:खी करूँ, मैं सुखी करूँ, मैं देव , मैं मनुष्य' इत्यादि हैं जो मिथ्यात्वरूप असंख्यात् लोकमात्र परिणाम [ अखिलं एव त्याज्यं] वे समस्त परिणाम हेय हैं। कैसा है परिणाम ? "जिनै: उक्तं'' परमेश्वर केवलज्ञान बिराजमान, उन्होंने ऐसा कहा है। "तत्'' मिथ्यात्वभावका हुआ है त्याग, उसको ‘मन्ये'' मैं ऐसा मानता हूँ कि "निखिलः अपि व्यवहार: त्याजितः एव'' [निखिलः अपि] जितना है सत्यरूप अथवा असत्यरूप [व्यवहारः] शुद्धस्वरूपमात्रसे विपरीत जितने मन वचन कायके विकल्प वे सब [ त्याजितः] सर्व प्रकार छूटे हैं। भावार्थ इस प्रकार है कि पूर्वोक्त मिथ्याभाव जिसके छूट गया उसके समस्त व्यवहार छूट गया। कारण कि मिथ्यात्वके भाव तथा व्यवहारके भाव एक वस्तु है। कैसा है व्यवहार ? "अन्याश्रयः'' [अन्य] विपरीतपना वही है, [ आश्रयः] अवलंबन जिसका, ऐसा है।। ११–१७३ ।। [उपजाति] रागादयो बन्धनिदानमुक्तास्ते शुद्धचिन्मात्रमहोऽतिरिक्ताः। आत्मा परो वा किमु तन्निमित्तमिति प्रणुन्नाः पुनरेवमाहुः।। १२-१७४ ।। [सोरठा] कहे जिनागम माँहि शुध्दातमसे भिन्न जो। रागादिक परिणाम कर्मबन्ध के हेतु वे ।। यहाँ प्रश्न अब एक उन रागादिक भाव का। यह आतमा या अन्य कौन हेतु है अब कहें।।१७४।। खंडान्वय सहित अर्थ:- "पुनः एवम् आहुः'' [ पुनः] शुद्ध वस्तुस्वरूपका निरूपण किया तथापि पुन: [ एवम् आहु:] ऐसा कहते है ग्रंथके कर्ता श्री कुंदकुंदाचार्य। कैसा है ? "इति प्रणुन्नाः'' ऐसा प्रश्नरूप नम्र होकर पूछा है। कैसा प्रश्नरूप ? ''ते रागादयः बन्धनिदानम् उक्ताः' अहो स्वामिन् ! [ते रागादयः] अशुद्ध चेतनारूप है राग द्वेष मोह इत्यादि असंख्यात लोकमात्र विभाव परिणाम, वे [ बन्धनिदानम् उक्ताः] ज्ञानावरणादि कर्मबंधके कारण है ऐसा कहा, सुना, जाना, माना। कैसे हैं वे भाव ? "शुद्धचिन्मात्रमहोऽतिरिक्ताः'' [शुद्धचिन्मात्र] शुद्ध ज्ञानचेतनामात्र हैं जो [ महः ] ज्योतिस्वरूप जीववस्तु, उससे [अतिरिक्ताः] बाहर हैं। अब एक प्रश्न मै करता हूँ कि "तन्निमित्तम् आत्मा वा परः'' [ तन्निमित्तम्] उन राग द्वेष मोहरूप अशुद्ध परिणामोंका कारण कौन है ? [ आत्मा] जीवद्रव्य कारण है [ वा] कि [पर: ] मोह कर्मरूप परिणमा है Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008397
Book TitleSamaysara Kalash
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy