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कहान जैन शास्त्रमाला]
बंध-अधिकार
१५३
[इन्द्रवजा] विश्वाद्विभक्तोऽपि हि यत्प्रभावादात्मानमात्मा विदधाति विश्वम्। मोहैककन्दोऽध्यवसाय एष । नास्तीह येषां यतयस्त एव।। १०-१७२।।
[रोला] यद्यपि चेतन पूर्ण विश्व से भिन्न सदा है,फिर भी निजको करे विश्वमय जिसके कारण। मेहमूल वह अध्यवसाय ही जिसके न हो,परमप्रतापी दीष्टवंत वे ही मुनिवर हैं।।१७२।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- "ते एव यतयः'' वे ही यतीश्वर है "येषांइह एष अध्यवसाय: नास्ति'' [ येषां] जिनको [इह ] सूक्ष्मरूप वा स्थूलरूप [ एषः अध्यवसायः] 'इसको मारूँ, 'इसको जिलारूँ' ऐसा मिथ्यात्वरूप परिणाम [नास्ति] नहीं है। कैसा है परिणाम ? ''मोहैककन्दः'' [मोह] मिथ्यात्वका [ एककन्द:] मूल कारण है। "यत्प्रभावात्'' जिस मिथ्यात्व परिणामके कारण "आत्मा आत्मानम् विश्वम् विदधाति'' [आत्मा] जीवद्रव्य [आत्मानम् ] आपको [ विश्वम्] - मैं देव, मैं मनुष्य , मैं क्रोधी, मैं मानी, मैं दुःखी, मैं सुखी इत्यादि नानारूप [ विदधाति] अनुभवता है। कैसा है आत्मा? “विश्वात विभक्त अपि' कर्मके उदयसे हई समस्त पर्यायोंसे भिन्न है. ऐसा है यद्यपि। भावार्थ इस प्रकार है कि मिथ्यादृष्टि जीव पर्यायमें रत है, इसलिए पर्यायको आपरूप अनुभवता है। ऐसे मिथ्यात्वभाव के छूटनेपर ज्ञानी भी साँचा , आचरण भी साँचा।। १०-१७२।।
[शार्दूलविक्रीडित] सर्वत्राध्यवसानमेवमखिलं त्याज्यं यदुक्तं जिनैस्तन्मन्ये व्यवहार एव निखिलोऽप्यन्याश्रयस्त्याजितः। स्म्यनिश्चयमेकमेव तदमी निष्कंपमाक्रम्य किं शुद्धज्ञानघने महिम्नि न निजे बध्नन्ति सन्तो धृतिम्।।११-१७३।।
[अडिल्ल सबही अध्यवसान त्यागने योग्य हैं ,यह जो बात विशेष जिनेश्वर ने कही। इसका तो स्पष्ट अर्थ यह जानिये,अन्याश्रित व्यवहार त्यागने योग्य है।। परमशुद्धनिश्चयनय का जो ज्ञेय है ,शुद्ध निजातमराम एक ही ध्येय है।
यदि ऐसी है बात तो मुनिजन क्यों नहीं,शुद्धज्ञानघन आतम में निश्चल रहे।।१७३।। खंडान्वय सहित अर्थ:- ''अमी सन्तः निजे महिम्नि धृतिम् किं न बध्नन्ति'' [अमी सन्तः] सम्यग्दृष्टि जीवराशि [निजे महिम्नि] अपने शुद्ध चिद्रूप स्वरूपमें [धृतिम्] स्थिरतारूप सुखको [ किं न बध्नन्ति] क्यों न करे ? अपितु सर्वथा करे। कैसी है निज महिमा ? "शुद्धज्ञानघने'' [ शुद्ध ] रागादि रहित ऐसे [ ज्ञान ] चेतनागुणका [घने] समूह है।
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