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कहान जैन शास्त्रमाला]
बंध-अधिकार
१५१
[वसन्ततिलका] अज्ञानमेतदधिगम्य परात्परस्य पश्यन्ति ये मरणजीवितदुःखसौख्यम्। कर्माण्यहंकृतिरसेन चिकीर्षवस्ते मिथ्यादृशो नियतमात्महनो भवन्ति।।७-१६९।।
[हरिगीत करे कोई किसी के जीवन-मरण अर दुःख-सुख। मानते हैं जो पुरूष अज्ञानमय इस बात को।। कर्तृत्व रस से लबालब हैं अहंकारी वे पुरूष। भव-भव भ्रमें मिथ्यामती अर आत्मघाती वे पुरूष।।१६९।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- "ये परात् परस्य मरणजीवितदुःखसौख्यम् पश्यन्ति''[ये] जो कोई अज्ञानी जीवराशि [परात्] अन्य जीवसे [परस्य] अन्य जीवका [मरणजीवितदुःखसौख्यम्] मरना, जीना, दुःख, सुख [पश्यन्ति] मानती है। क्या करके ? "एतत अज्ञानम अधिगम्य'' [ एतत अज्ञानम] मिथ्यात्वरूप अशद्ध परिणामको-ऐसे अशद्धपनेको [ अधिगम्य ] पाकर। "ते नियतम् मिथ्यादृशः भवन्ति'' [ते] जो जीवराशि ऐसा मानती है वह [नियतम्] निश्चयसे [मिथ्यादृशः भवन्ति ] सर्व प्रकार मिथ्यादृष्टिराशि है। कैसे हैं वे मिथ्यादृष्टि ? ''अहंकृतिरसेन कर्माणि चिकीर्षवः'' [अहंकृति] मैं देव, मैं मनुष्य, मैं तिर्यंच, मैं नारक, मैं दुःखी, मैं सुखी ऐसी कर्मजनितपर्यायमें है आत्मबुद्धिरूप जो [ रसेन] मग्नपना उसके द्वारा [कर्माणि] कर्मके उदयसे जितनी क्रिया होती है उसे [ चिकीर्षवः] — मैं करता हूं , मैने किया है, ऐसा करूँगा' ऐसे अज्ञानको लिए हुए मानते हैं। और कैसे हैं ? "आत्महनः'' अपने को घातनशील हैं।। ७–१६९ ।।
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