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समयसार-कलश
[भगवान् श्री कुन्द-कुन्द
[वसन्ततिलका] सर्वं सदैव नियतं भवति स्वकीयकर्मोदयान्मरणजीवितदुःखसौख्यम्। अज्ञानमेतदिह यत्तु पर: परस्य कुर्यात्पुमान् मरणजीवितदुःखसौख्यम्।। ६-१६८ ।।
[हरिगीत] जीवन-मरण अर दुक्ख-सुख सब प्राणियों के सदा ही। अपने कर्म के उदय के अनुसार ही हों नियम से ।। करे कोई किसी के जीवन-मरण अर दुक्ख-सुख। विविध भूलों से भरी यह मान्यता अज्ञान है ।।१६८।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- "इह एतत् अज्ञानम्'' [इह ] मिथ्यात्व परिणामका एक अंग दिखलाते हैं - [एतत् अज्ञानम्] ऐसा भाव मिथ्यात्वमय है। "तु यत् पर: पुमान् परस्य मरणजीवितदुःखसौख्यम् कुर्यात्'' [तु] वह कैसा भाव ? [ यत्] वह भाव ऐसा कि [ परः पुमान्] कोई पुरूष [परस्य ] अन्य पुरूषके [ मरणजीवितदुःखसौख्यम् ] मरण-प्राणघात, जीवित-प्राणरक्षा, दुःख-अनिष्टसंयोग, सौख्य-इष्टप्राप्ति ऐसे कार्यको [ कुर्यात् ] करता है। भावार्थ इस प्रकार है - अज्ञानी मनुष्योंमें ऐसी कहावत है कि इस जीवने इस जीवको मारा, 'इस जीवने इस जीवको जिलाया, 'इस जीवने इस जीवको सुखी किया, 'इस जीवने इस जीवको दुःखी किया' ऐसी कहावत है सो ऐसी ही प्रतीति जिस जीवको होवे वह जीव मिथ्यादृष्टि है ऐसा निःसंदेह जानियेगा, धोका कुछ नहीं। क्यों जानना कि मिथ्यादृष्टि है ? कारण कि "मरणजीवितदुःखसौख्यम् सर्वं सदा एव नियतं स्वकीयकर्मोदयात् भवति'' [ मरण] प्राणघात [ जीवित] प्राणरक्षा [ दु:खसौख्यम् ] इष्टअनिष्टसंयोग यह जो [ सर्वं] सर्व जीवराशिको होता है वह सब [ सदा एव सर्व काल [नियतं] निश्चयसे [ स्वकीयकर्मोदयात् भवति] जिस जीवने अपने विशुद्ध अथवा संक्लेशरूप परिणामके द्वारा पहले ही बाँधा है जो आयुकर्म अथवा साताकर्म अथवा असाताकर्म, उस कर्मके उदयसे उस जीवको मरण अथवा जीवन अथवा दुःख अथवा सुख होता है ऐसा निश्चय है। इस बातमें धोका कुछ नहीं। भावार्थ इस प्रकार है कि कोई जीव किसी जीवको मारने के लिए समर्थ नहीं है, जिलाने के लिए समर्थ नहीं है, सुखी-दुःखी करने के लिए समर्थ नहीं है।। ६-१६८ ।।
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